Wednesday 21 May 2014

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-003 -अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम् भाग-02- Algorithm of Pancha Mahabhootas (Post ih Hindi)

।। हरि: ॐ ।।
आयुर्वेदस्वर्धुनि:-00३

21-05-2014


अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम्

भाग-0२


आकाश


       आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पंचभूतों से सृष्टि की रचना हुई है। मानवदेह भी पांचभौतिक है। हम‘पंचभूतसिध्दान्तमूलक शारीर विचार’ कर रहे हैं।

शरीर-रचना की दृष्टि से पंचभूतों का विचार करने से पहले शरीर के ‘पंच विभाग’ समझ लेना आवश्यक है ।

प्रथम विभाग- ऊर्ध्वजत्रुगत प्रदेश अर्थात शिर: ।
द्वितीय विभाग- अधोजत्रुगत मध्यपटलपर्यन्त प्रदेश, उभय ऊर्ध्वशाखाओं सहित।
तृतीय विभाग- नाभिसंस्थान
चतुर्थ विभाग- अधोनाभीय बस्तिपर्यन्त प्रदेश
और
पञ्चम विभाग- गुद, नितंब एवं उभय अध: शाखाओं सहित प्रदेश !!

                  ‘‘ प्रथम विभाग- ऊर्ध्वजत्रुगत शिर:प्रदेश’’


‘‘ ऊर्ध्वमूलमध:शाखं ऋषयं पुरुषो विदु: ॥ यह पंक्ति आपने सुनी ही होगी।

‘‘प्राणा: प्राणभृतां यत्र श्रिता: सर्वेन्द्रियाणि च ।
   यदुत्तमांगमंगानां शिर इत्यभिधीयते ॥    - चरकसंहिता सूत्रस्थान 17

        ये दो उक्तियाँ ‘शिर’ का ‘मूलत्व’ यानी ‘उत्तम-अंगत्व’ स्पष्ट करती हैं । ‘आकाश’ यह जिस तरह समस्त महाभूतों का मूल है, वैसे ही शरीरवृक्ष का मूल ‘शिर’ ही है ।

  ‘‘शिरसि इन्द्रियाणि इन्द्रियप्राणवहानि च स्रोतांसि सूर्यमिव गभस्तय: संश्रितानि...... ॥
                                                                                                    - चरकसंहिता सिद्धिस्थान 9/4.

     चरकाचार्य का सिध्दिस्थानस्थ त्रिमर्मीय अध्यायगत यह वचन भी शिर के अन्योन्यमहत्व को सदृष्टान्त स्पष्ट करता है ।

       ‘शिर’  यह आकाश के अधिपत्य में आता है । उपनिषदों में भी ‘शिर’ का वर्णन ‘मानवदेहस्थ गुहा, अवकाश’ इस तरह ही किया गया है । ‘शिर:-अस्थिकरोटी’(स्कल), ‘मुखगुहा’(माऊथ), ‘मन्यागुहा’ (नेक) जैसे आकाश-स्थान इसी में है और ‘शब्द’ इस आकाश-गुण की उत्पत्ति करनेवाला ‘स्वरयंत्र’ भी ऊर्ध्वजत्रुप्रदेश में स्थित है ।  

       ‘‘सत्त्वबहुलं आकाशम्’’ -
        ‘‘सत्त्वात् संजायते ज्ञानम्’’-

        आकाश यह सत्त्वबहुल होने से और सत्त्व यह ज्ञानप्रकाशक होने से शिरोभाग में ही समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ एवं स्रोतस्-केन्द्रों के ‘मूल’ प्रतिष्ठित है । यह सारी रचनाएँ मानवशरीर में इस प्रदेश के अलावा कहीं और स्थित होना असंभव होगा, सिध्दान्तविरुद्ध होगा ।

       यहाँ क्या ‘मस्तिष्क’ पृथ्वीतत्त्व का नहीं है? और शिर:करोटी (स्कल) यह रचना अस्थि से बनी होने से क्या पृथ्वीतत्त्व की नहीं है? ऐसे प्रश्‍न उपस्थित हो सकते हैं । लेकिन रचनात्मक दृष्टि से विचार करने पर ये प्रश्‍न तुरंत ही हल हो जाते हैं । मस्तिष्क यह पार्थिव प्रतीत होने पर भी, जिस तरह किसी वस्त्र को अनेक परतों में लपेटकर रख दिया जाने पर वह जैसा दिखायी देगा, ठीक वैसा दिखायी देता है । इसी कारण वह भार में भी हलका होता है । उसके आकारमान की अपेक्षा उसका वस्तुमान कम होता है । इस से ‘आकाश’ महाभूत का ही आधिक्य मस्तिष्क में स्पष्ट रूप से दिखायी देता है ।

‘‘काशृ दीप्तौ’’ धातु (व्हर्ब) का अर्थ है- प्रकट होना, चमकना, उज्वल या सुन्दर दिखायी देना। आकाश शब्द में यही धातु है। जिस तरह ब्रह्माण्ड में पंचमहाभूतों में से आकाश यह महाभूत सर्वप्रथम प्रकट होता है, उसी तरह की तरह शरीर में ‘ज्ञान’ सर्वप्रथम मस्तिष्क में ही प्रकट होता है ।

‘करोटी अस्थि’ यह क्या पार्थिव तत्त्व नहीं है? फिर उस पर आकाश की सत्ता कैसे? आइए, इन निम्नलिखित सूत्रों पर विचार करते हैं।
‘‘तत्रास्थनि स्थितो वायु:’’- अष्टांगहृदय सूत्रस्थान 12
‘‘अस्थि पृथिव्यनिलात्मकम्’’  सुश्रुतसंहिता सूत्रस्थान 15/8- भानुमती टीका.
‘‘पृथिव्यग्न्यनिलादीनां संघात: श्लेष्मणा कृतम् ।
   खरत्त्वं प्रकरोत्यस्य जायतेऽस्थि ततो नृणाम् ॥
   करोति तत्र सौषिर्यमस्थ्नां मध्ये समीरण: ॥    - चरकसंहिता चिकित्सास्थान 15/30, 31

     इन सूत्रों से अस्थिगत वायु और आकाश इन भूतों का भी सहभाग स्पष्ट होता है । विशेषत: ‘सौषिर्य’ यह आकाशीय गुण ‘करोटी अस्थियों में’ विशेष रूप से प्राप्त होता है । शरीर की अन्य अस्थियों की अपेक्षा करोटी अस्थियों का वज़न क’ होता है । इससे उनका आकाशीयत्व स्पष्ट हो जाता है ।
ज्ञान का अधिष्ठान रहने वाला, शब्दोत्पत्ति जहाँ होती है ऐसा, ज्ञानेन्द्रियों का आवास स्थल रहने वाला और शरीर का सबसे बडा अवकाश, गुहायुक्त स्थान रहने वाला ‘शिर’ यह आकाशमहाभूत की सत्ता में है, यह इस विवेचन से स्पष्ट होता है । आकाश विवरण में और अधिक गहराई से विचार किया जा सकता है । विशेषत: सभी ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान प्राप्ति हेतु अवकाश की नितान्त आवश्यक्ता है ।

        कर्ण की रचना में, अन्त:, मध्य एवं बाह्य कर्ण की रचना अवकाश से बनी ही बनी है और उसके अभाव में शब्दज्ञान ही नहीं होगा, यह हम जानते ही हैं । कर्णपटल के सामने का कर्णपथ अवरुद्ध होने पर श्रवण यह कार्य नहीं होगा । नासमार्ग के अवकाश के कारण ही झर्झरास्थि से आनेवाले नासा-चेता-तंतुओं को एवं घ्राणेन्द्रिय को अपना कार्य करने ही का सामर्थ्य प्राप्त होता है । यदि झर्झरास्थि सौषिर्ययुक्त नहीं होती, तो ‘नासा हि शिरसो द्वारम्’ यह भी नहीं कहा जाता (नासा हि शिरसो द्वारम् इसका स्पष्टीकरण सद्गुरु डॉ. श्री. अनिरुद्धसिंह ने बहुत ही सुन्दरता से किया है) और गंधज्ञान भी नहीं हो पाता । अत: आकाश का उसमें महत्त्व स्पष्ट लक्षित होता है ।

       यदि मुखविवर नहीं होता, तो जिह्वा के विभिन्न हिस्सों पर पदार्थ सरलता से नहीं रह पाते और रसज्ञान भी नहीं हो पाता । इसी तरह जिह्वा पर स्थित अंकुर (टेस्ट बड्स्), जिन से रसज्ञान होता है, उनमें स्थित अवकाश यह विशेष ज्ञान हेतु आवश्यक होता है । रसना को भी स्वयं की चेष्टा हेतु ‘ख’त्व की आवश्यकता होती है । नेत्र में भी प्रकाशकिरण पटल पर केन्द्रित होने के लिए अवकाश की आवश्यकता होती है । और त्वचा के विषय में तो क्या कहना! अनगिनत रोमकूप एवं स्वेदवह स्रोतों से त्वचा व्याप्त है, अत: वहाँ पर अवकाश का होना सिध्द है ।

        चेतातंतु (न्यूरॉन) की रचना में भी अवकाश की आवश्यकता होती ही है । उनकी रचना का वैशिष्टय वस्तुत: ‘आकाशमूलकत्व’ है, यही कहा जा सकता है । यंत्रों की सहायता से आज के वैज्ञानिकों ने जो प्रत्यक्ष दिखाया, वही हमारे प्राचीन आचार्यों ने अपनी ज्ञानचक्षुओं के बल पर पहले ही देखकर बीजरूप में लिख रखा है ।
‘चेतातंतु’ आकाश के अधिपत्य में आने से उनकी रचना में ‘आकाशत्व’ होना निर्विवाद शास्त्रसिध्दान्त सम्मत है ।

       इस कार्यकारणभाव को पढ़ने पर आचार्यों की विशाल बुध्दि को हम मन ही मन वंदन करते हैं, जिन्होंने स्थूलतम से सूक्ष्मतम तक का सभी वर्णन अल्प अक्षरों में, बीजरूप में किया है।
यहाँ पर मैंने अपनी मतिक्षमता के अनुसार प्रयास किया है । सद्गुरुतत्त्व ने मेरे मन के आकाश में शरीर के आकाशीय भाग में यानी मस्तिष्क में जो उत्पन्न किया, उसे ही मैं कागज़ के आकाश पर उतार रहा हूँ । सब कुछ गगनसदृश सद्गुरुतत्त्व का ही है। अधिक गहराई से इस मुद्दे पर विचार किया जा सकता है । ‘आकाश’ और ‘शिर:प्रदेश’ इनका साधर्म्य स्पष्ट करने का यह यथाशक्ती किया गया प्रयास है। इसके बाद ह्म मानव-शरीर के द्वितीय विभाग का यानी जत्रुकास्थ्यध: (जत्रुकास्थि-अध:) मध्यपटल तक के वायु विभाग का अध्ययन करेंगे।

अंबज्ञोऽस्मि ।

।। हरि: ॐ ।।