Wednesday 2 July 2014

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-007 -अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम् भाग-06- Algorithm of Pancha Mahabhootas (Post ih Hindi)

 ।। हरि: ॐ ।।

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-00७


०२-०७-२०१४


अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम्

भाग-0६


आढमल्ल आचार्य तो विशाल बुध्दिमत्ता के उत्तुंग शिखर थे । मेरे मन में यह विचार आता है कि ‘आढ्यमल्ल’ यह उनका वास्तविक नाम या उनकी उपाधि होनी चाहिए । ‘आ+ध्यै+मल्ल्’ धातु से आढ्यमल्ल शब्द बना है ।
‘आढ्य’ - ‘‘आध्यैतेऽनेन इति आढ्य:, ध्यानचिन्तनादिषु उत्तम: इति आढ्य: ।’’
      ध्यान-चिंतन-विद्या-तर्क-विचार इन सबमें उत्तम अर्थात आढ्य !

‘मल्ल् धारणे’ इस धातु से व्युत्पन्न ‘मल्ल’ शब्द का अर्थ होता है- बलिष्ठं, श्रेष्ठ, उत्तम !
अत: ‘‘आढ्येषु मल्ल: इति आढ्यमल्ल: ।’’ इस तरह सामासिक शब्द बनकर उसका अर्थ होता है- ध्यान-चिंतन-विद्या-तर्क-विचार इन सबमें उत्तम रहनेवाले ज्ञानी पुरूषों में जो सर्वश्रेष्ठ हैं। ‘आढ्यमल्ल’ का अपभ्रंश होकर ‘आढमल्ल’ यह शब्द बना होगा ।

       खैर, आढमल्ल आचार्य ने शार्ङ्गसंहिता में प्रतिपादित ‘नाभिस्थ: प्राणपवन: ....’ इस श्लोक पर टीका लिखी है । 
वह इस तरह है-
‘प्राणपवन: प्राणानिल: प्राणाश्रितो वायु: इति तात्पर्यार्थ: ।
 प्राणा: अग्निषोमादय: । नाभिस्थ इति कारणात् नाभौ स्थित:, सकलशरीरव्यापकत्वात् ।
 एतेन नाभ्यावृत्तसिरास्वपि स्थित: इति भाव: ।
 यदुक्तं- ‘‘नाभिस्थां: प्राणिनां प्राणा: प्राणान्नाभिर्व्युपाश्रिता ।
 सिराभिरावृता नाभिश्चक्रनाभिरिवारकै: ॥ इति  सु. शा. 7/5
- आढमल्ल आचार्य- शा. खं. 1/5/48

      ‘‘प्राणपवन’’ इसका अर्थ प्राणाश्रित वायु ऐसा ही निकाला है । प्राण का अर्थ अग्नि-सोम आदि ! अग्नि से यहाँ रक्त और सोम से रसधातु उपलक्षणरूप ग्रहण करना चाहिए ।

         ‘‘अग्नि: सोमो वायु: सत्त्वं राजस्तम: पंचेन्द्रियाणि भूतात्मेति प्राणा: ॥   
                                                                                            - सु. शा. 4/3.

        सत्व, रज: एवं तम: ये त्रिगुण, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ और भूतात्मा ये मानस और आध्यात्मिक दृष्टि से प्राण हैं ।
अग्नि, सोम और वायु ये शारीर प्राण हैं ।

वाग्भटाचार्य की ‘‘अग्निषोमीयत्वाद्-जगत:’’ इस उक्ति के अनुसार अग्नि-सोम से ही सारा संसार बना है। अन्य शास्त्रकारों ने कहा भी है- ‘तत्सर्वं अग्निषोमीये दृश्यते भुवनत्रये ॥ पिण्ड-ब्रह्माण्डन्याय के अनुसार देह का भी अग्निषोमीय होना स्वाभाविक ही है। कहा भी है- ‘सौम्यं शुक्रं, आर्तवं आग्नेयम् ॥

तो ऐसे शुक्रशोणित-संयोग से यानी सौम्याग्नेय-संयोग से ही मानव की निर्मिति होती है । ‘रसरक्त’ धातुओं का संयोग भी ‘अग्निषोमीयत्व’ प्रतिपादित करता है ।
कहा भी है-
‘अग्निषोमीयत्वाद्गर्भस्य ॥ सु. सू. 14/7.   
‘स खलु द्रवानुसारी स्नेहनजीवनतर्पणधारणादिभि: विशेषै: ‘सौम्य’ इत्यवराम्यते ॥ -सु. सू. 14/3   

       सौम्य रसधातु पर ‘रंजकाग्नि’ की क्रिया होने पर ‘रसरक्तयुग्म’ यह उष्णशीत युग्म बनता है, क्योंकि अग्निषोमीय शरीर में दो प्रकार के परमाणु विद्यमान होते हैं- ‘आग्नेय और सौम्य ! ’ अत: यह युग्म जो मुख्यत: शरीरपोषण हेत्वर्थ बना है, उसमें रस के द्वारा सौम्य और रक्त के द्वारा आग्नेय परमाणुओं का पोषण किया जाता है ।

‘सामान्य -विशेष’ सिध्दान्त यह आयुर्वेद का मूलभूत सिध्दान्त है और उस सिध्दान्त की दृढता पर जिस तरह ‘आदान-विसर्ग’ काल से निसर्ग ‘ऋतुचक्र’ संधारित करता है, धारण-पोषण करता है, उसी तरह शरीर में भी ‘रसरक्त’ युग्म धातुचक्र संधारित करता है।
 
‘‘विसर्गादानविशेषै: सोमसूर्यानिला यथा ।
       धारयन्ति जगद्देहं कफपित्तानिलास्तथा ॥   -  सु. सू. 21.

      इस सूत्र को  ‘‘पित्तं तु स्वेदरक्तयो:’’
                       ‘‘कफस्तु रसस्य मल इत्युक्तम्’’
                       ‘‘श्लेष्मा शेषेषु सर्वेषु’’
                       ‘‘पित्तं रक्तस्य मल इत्युक्तं’’
                       ‘‘किट्टमन्नस्य विण्मूत्रं रसस्य च कफोऽसृज: ।’’

        इन वचनों की पुष्टि देने पर वायुसहित ‘रस-रक्त’ रहकर देह-जगत् को धारण करते हैं, इस बात की निश्‍चिति हो जाती है । ‘कफ’ रसधातु में और ‘पित्त’ रक्तधातु में आश्रयी रूप में रहकर ये कार्य सम्पन्न करते हैं ।

        अब ‘‘नाभिस्थ: प्राणपवन: स्पष्ट्वा हृत्कमलान्तरम्’’ इस वाक्य का अर्थ स्पष्ट होता है । मध्य अन्नपाचन संस्थानस्थ- नाभि परिसरीय संस्थानस्थ रसरक्ताश्रित वायु हृत् संलग्न फुफ्फुस को, कमल को, आभ्यन्तर स्पर्श करके कण्ठ द्वारा बाहर आती है, ऐसा इस वाक्य का सरलार्थ हुआ । ‘स्पृष्ट्वा’ का अर्थ छींटे समान फैलकर संस्पर्शित करना, ऐसा लेना चाहिए, जिसे वायुकोश के भीतर चलनेवाली क्रिया के द्वारा समझा जा सकता है, जहाँ युगपत् रसरक्त फुफ्फुस के अन्तर्गत वायुकोश में छींटे समान फैलते है और वायु फेफडों को भीतर से संस्पर्शित कर कण्ठ से बाहर जाती है । किसी चीज को भीतर से स्पर्श कर निकल जाना, यह क्रिया ‘स्पृष्ट्वा’ इस शब्द के द्वारा दर्शायी गयी है। इस क्रिया में नाभिस्थ ‘प्राण’ का फुफ्फुसों में होनेवाला संचार दर्शाया गया है और प्राणवायु हृत्कमल को स्पर्शकर कण्ठ से बाहर आती है, यह भी कहा गया है ।


अंबज्ञोऽस्मि ।

।। हरि: ॐ ।।