Friday, 18 July 2014

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-008 -अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम् भाग-07- Algorithm of Pancha Mahabhootas (Post ih Hindi)

।। हरि: ॐ ।।

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-00८


१८-०७-२०१४


अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम्

भाग-0७

       
 ‘पवन’ यह शब्द ‘पूङ् पवने’ इस धातु से बना है । ‘पूङ् पवने’ धातु का अर्थ है- तेज गति से बहकर स्वच्छ करना, पवित्र करना ।  इससे हमें यह ज्ञात होता है कि नाभि-परिसर से हृदय के माध्यम से फुफ्फुसों के द्वारा कण्ठ से बाहर जानेवाली वायु यह पवित्रीकरणार्थ महावेग से, तेजी से गती करती है और इसीलिए आचार्यों ने वायु को ‘पवन’ इस शब्द से संबोधित किया है । प्रत्यक्षत: हमें भी ‘शारीरक्रिया’ विज्ञान में यही प्राप्त होता है, यह सत्य है ।

        ‘विष्णुपदामृत’ शब्द का अर्थ आधिदैविक और आधिभौतिक दृष्टिकोण से अलग किया जा सकता है, लेकिन उनका तात्पर्य एक ही है । वह कैसे यह अब देखते हैं-
          ‘‘विष्लृ व्याप्तौ’’ इस धातु से ‘विष्णु’ यह शब्द व्युत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है- ‘सर्वव्यापक’ । ‘पद्‍ गतौ’ धातु से ‘पद’ यह शब्द बना होने से, पद का अर्थ है- जो गतिमान है वह । ‘विष्णुपद’ शब्द का अर्थ होता है- ‘सर्वव्यापक गतिमान’ । ‘अमृत’ का अर्थ यहाँ  पर ‘अमृतत्त्वं = विषविरोधित्वं’ इस अर्थ में लेना चाहिए; अत: अमृत का अर्थ है- ‘विषविरोधक’ । 

अत: ‘विष्णुपदामृत’ शब्द का अर्थ है- ‘सर्वव्यापक गतिमान विषविरोधक तत्त्व’ । शरीर में निर्माण होनेवाली प्रांगारद्विजारेय (कार्बन डाइऑक्साइड) वायु शरीर को विषसमान ही है और उस विष का विरोधी रहनेवाली, शरीर को अमृतत्व प्रदान करनेवाली सर्वव्यापक शीघ्रगतिमान ऐसी ओषवायु (ऑक्सिजन) (स्थूल प्राणवायु) को पीने के लिए (पातुं) ‘पवन’ बहिर्निर्वर्तित होता है ।

          ‘विष्णु’ शब्द का अर्थ सर्वव्यापक विश्‍वव्यापी वायुतत्व । सर्वव्यापी वायुओं में से पृथ्वी पर स्थित व्यक्ति के परिसरीय क्षेत्र में, वातावरणोपस्थित नत्रादि (नायट्रोजन आदि) वायुओं की देशसापेक्ष घनता भिन्न-भिन्न होती है, जिसे ‘विष्णुपद’ कहा गया है । उन वायुओं में से अमृतरूपी प्राणोपकारक वायु को विष्णुपदामृत कहा गया है !
          उपरोक्त अर्थ यह आधिभौतिक-व्युत्पत्तिमूलक हुआ ।

          असुरराजा बलि से वामन ने अर्थात महाविष्णु ने अवताररूप में जब ‘तीन पद’ जितनी भूमि माँग ली, तब विष्णु के द्वारा रखे गये प्रत्येक पाद को ‘विष्णुपद’ से कहते हैं । विष्णु के पाद ने ‘द्यावा-पृथिवी-पाताल’ व्याप्त कर लिये । पृथ्वी के वातावरण का प्रकाशमान भाग ‘द्युलोक’ कहलाता है । ‘द्यावा-पृथिवी’ यह ऋग्वेद में युग्मरूप में वर्णित है । द्यावा और पृथिवी मानों अविभाज्य है ।

          अत:, विष्णुपदों में, पदन्यास में स्थित ऐसा अमृत अविनाशी तत्व है विष्णुपदामृतम् अर्थात, ‘‘विष्णुपदेषु स्थितं यद् अमृतं तद् विष्णुपदामृतम् । ’’ इस आध्यात्मिक वर्णन के पीछे एक प्रखर सत्य है । द्युलोक, पृथिवी और पाताल (जमीन का अधोभाग) इन तीनों स्तरों में सर्वत्र अविनाशी तत्त्व के अर्थात ‘वायु’ स्थित है । उसकी ‘चक्ररूप’ गति से (उदाहरणार्थ- प्रांगार द्विजारेय, नत्र, ओष, उदजन वायुओं की चक्रगति (Cycle of Carbon, Nitrogen, Oxygen and Hydrogen), जिसे आज आधुनिक प्रयोगों के द्वारा प्रदर्शित किया गया है ।) वे वायुघटक मानो अमर ही रहते हैं अर्थात् द्युलोक, पृथ्वी और पाताल इनमें अनुचंक्रमित होनेवाले वायुतत्त्व का यानी विष्णुपदामृत का पान करने हेतु ‘पवन’ बाहर आता है, ऐसा अर्थ प्राप्त होता है ।

         ‘विष्णुपद’ अर्थात विष्णु के पैर ऐसा अर्थ लिया जाये तो फिर पैरों का ‘गमन’ यह कार्य ध्यान में रखकर ‘विष्णुपद’ इस शब्द का अर्थ होता है- ‘विष्णु का गमनसाधन’ । ‘विष्णु’ यह व्यक्ति न होकर चराचरव्यापी, सर्वश्रेष्ठ परमात्मतत्त्व है यह हमें सुविदित है, अत: विष्णु को पैर आदि अवयव ये हमारे अवयवों की तरह अवयव न होकर अवयव यह यहाँ पर केवल कार्यानुमेय उपमा है, यह ध्यान में रखना चाहिए । 

परमात्मतत्त्व की सगुणता का आकाश यह निवासस्थान होता है, सत्त्वगुण उसका आश्रयस्थान होता है; परन्तु सत्त्वगुण-नियन्त्रित रजोगुण यही उस सर्वव्यापक तत्त्व का गमनसाधन है और इसीलिए यहाँ पर ‘वायु’तत्त्व को उसके पद यानी गति करने का साधन कहा गया है । अत: ‘विष्णुपद’ शब्द का अर्थ वायुमहाभूत यह भी होता है ।

          प्रकृति के बीजधर्म और प्रसवधर्म इन दो धर्मों के अनुसार बीजधर्मी वायुमहाभूत के आगे महाभूत का अन्योऽन्यानुप्रवेश के कारण अनेक रूपों में प्रकटन हुआ; बीजधर्म का प्रसवधर्म में रूपांतरण हुआ । फिरभी उसका मूल गुणधर्म ‘विष्णुपदत्त्व’ कायम ही रहा, उलटे मैं तो ऐसे कहूँगा कि यह गुण ही प्रसवित होकर अभिवर्धिष्णु हुआ ।

          इस कारण सुप्रसवित पांचभौतिक विष्णुपद के, वायु के जो अनेक रूप प्रकट हुए, उनमें अमृतमयी ऐसा रूप आज जिसे हम ओषवायु (ऑक्सिजन) कहते हैं वही है । सर्वव्यापक तत्त्व की प्रसवोत्तर गति-उत्कटता का प्रतीक है विष्णुपदामृत ।  

         ‘‘देवासुरैरमृतमम्बुनिधिर्ममन्थे.......’’ इन शब्दों में जो क्षीरसागर-मन्थन का वर्णन किया है । क्षीरसागर-मन्थन क्रिया में ‘अमृत’ उत्पन्न हुआ, उसी तरह ‘प्रकृति-पुरूष’ तत्त्वों से मन्थन करने पर संप्रसवोत्तर निर्माण हुए विश्व में अनेक वायुरत्नों की अपेक्षा ‘प्राणवायु’ यह विष्णुपदामृत है । जिस तरह मन्थन में ‘विष’ और ‘अमृत’ दोनों प्राप्त हुए, उसी तरह पांचभौतिक वायु से ‘प्रांगार द्विजारेय’ और ‘प्राणवायु’ दोनों का जन्म हुआ ।

            सारांश- ‘विष्णुपदामृत’ यह कितनी समर्थ उपमा आचार्यों ने आयुर्वेद की इस श्लोकरचना को प्रदान की है, इसकी महत्ता उपरोक्त विवरणों से स्पष्ट होता है ।

           संस्कृतभाषा के मूल व्याकरण को धक्का न लगें, इस बात की सावधानी रखते हुए, वायुचक्र का सिध्दान्त (Cycle of Carbon, Nitrogen, Oxygen and Hydrogen) उपमा-रूप में रचकर और उससे भी महत्त्वपूर्ण अर्थात आध्यात्मिक अधिष्ठान में प्रत्यक्ष व्यावहारिक दृष्टिकोण सजाकर, एक गूढ़ अर्थ की कस्तूरी भाषारूपी नाभि में रखकर, उच्चस्तरीय एवं सुसम्बध्द सालंकृत वर्णनों को कल्पकता से रचना, इसमें हमारे ऋषियों की प्रतिभा के सामने हम नतमस्तक हो जाते हैं ।   

अल्पाक्षरं असंदिग्धं सारवत् विश्‍वतोमुखम् । अस्तोभं अनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदु: ॥  
          कहने का तात्पर्य इतना ही है कि हाँ, हमारे ऋषि सर्वज्ञानी थे, उन्होंने सारा ज्ञान ऊपरोक्त पद्धति से अनेक सूत्रों में कहा है । उन्होंने अपने मन्तव्य को द्विरूक्ति-विस्तार आदि दोषों से रहित कुशलतापूर्वक सूचित किया है । हमारा कार्य इतना ही है कि हम ऋषियों के मार्ग का अनुसरण करें, विविध ज्ञानप्रदेशों को उजागर करें और पुन: पुन: आयुर्वेद-ज्ञानसागरका मन्थन करके बोधरत्न प्राप्त करते रहें ।


अंबज्ञोऽस्मि ।

।। हरि: ॐ ।।



Tuesday, 15 July 2014

अपना बापु ही बापु है (Poem in Hindi)


।। हरि: ॐ ।।

१२-०७-२०१४

अपना बापु ही बापु है









अंबज्ञोऽस्मि ।
 ।। हरि: ॐ ।।


गुरुपौर्णिमायां अर्चयामः श्रीत्रिविक्रमम् |हे त्रिविक्रम! देहि  नः श्रद्धां धैर्यं अनन्यताम् || (Post in Marathi)

॥ हरि: ॐ ॥ 

15-07-2014

गुरुपौर्णिमायां अर्चयामः श्रीत्रिविक्रमम् | 

हे त्रिविक्रम! देहि  नः श्रद्धां धैर्यं अनन्यताम् || 





Wednesday, 2 July 2014

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-007 -अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम् भाग-06- Algorithm of Pancha Mahabhootas (Post ih Hindi)

 ।। हरि: ॐ ।।

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-00७


०२-०७-२०१४


अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम्

भाग-0६


आढमल्ल आचार्य तो विशाल बुध्दिमत्ता के उत्तुंग शिखर थे । मेरे मन में यह विचार आता है कि ‘आढ्यमल्ल’ यह उनका वास्तविक नाम या उनकी उपाधि होनी चाहिए । ‘आ+ध्यै+मल्ल्’ धातु से आढ्यमल्ल शब्द बना है ।
‘आढ्य’ - ‘‘आध्यैतेऽनेन इति आढ्य:, ध्यानचिन्तनादिषु उत्तम: इति आढ्य: ।’’
      ध्यान-चिंतन-विद्या-तर्क-विचार इन सबमें उत्तम अर्थात आढ्य !

‘मल्ल् धारणे’ इस धातु से व्युत्पन्न ‘मल्ल’ शब्द का अर्थ होता है- बलिष्ठं, श्रेष्ठ, उत्तम !
अत: ‘‘आढ्येषु मल्ल: इति आढ्यमल्ल: ।’’ इस तरह सामासिक शब्द बनकर उसका अर्थ होता है- ध्यान-चिंतन-विद्या-तर्क-विचार इन सबमें उत्तम रहनेवाले ज्ञानी पुरूषों में जो सर्वश्रेष्ठ हैं। ‘आढ्यमल्ल’ का अपभ्रंश होकर ‘आढमल्ल’ यह शब्द बना होगा ।

       खैर, आढमल्ल आचार्य ने शार्ङ्गसंहिता में प्रतिपादित ‘नाभिस्थ: प्राणपवन: ....’ इस श्लोक पर टीका लिखी है । 
वह इस तरह है-
‘प्राणपवन: प्राणानिल: प्राणाश्रितो वायु: इति तात्पर्यार्थ: ।
 प्राणा: अग्निषोमादय: । नाभिस्थ इति कारणात् नाभौ स्थित:, सकलशरीरव्यापकत्वात् ।
 एतेन नाभ्यावृत्तसिरास्वपि स्थित: इति भाव: ।
 यदुक्तं- ‘‘नाभिस्थां: प्राणिनां प्राणा: प्राणान्नाभिर्व्युपाश्रिता ।
 सिराभिरावृता नाभिश्चक्रनाभिरिवारकै: ॥ इति  सु. शा. 7/5
- आढमल्ल आचार्य- शा. खं. 1/5/48

      ‘‘प्राणपवन’’ इसका अर्थ प्राणाश्रित वायु ऐसा ही निकाला है । प्राण का अर्थ अग्नि-सोम आदि ! अग्नि से यहाँ रक्त और सोम से रसधातु उपलक्षणरूप ग्रहण करना चाहिए ।

         ‘‘अग्नि: सोमो वायु: सत्त्वं राजस्तम: पंचेन्द्रियाणि भूतात्मेति प्राणा: ॥   
                                                                                            - सु. शा. 4/3.

        सत्व, रज: एवं तम: ये त्रिगुण, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ और भूतात्मा ये मानस और आध्यात्मिक दृष्टि से प्राण हैं ।
अग्नि, सोम और वायु ये शारीर प्राण हैं ।

वाग्भटाचार्य की ‘‘अग्निषोमीयत्वाद्-जगत:’’ इस उक्ति के अनुसार अग्नि-सोम से ही सारा संसार बना है। अन्य शास्त्रकारों ने कहा भी है- ‘तत्सर्वं अग्निषोमीये दृश्यते भुवनत्रये ॥ पिण्ड-ब्रह्माण्डन्याय के अनुसार देह का भी अग्निषोमीय होना स्वाभाविक ही है। कहा भी है- ‘सौम्यं शुक्रं, आर्तवं आग्नेयम् ॥

तो ऐसे शुक्रशोणित-संयोग से यानी सौम्याग्नेय-संयोग से ही मानव की निर्मिति होती है । ‘रसरक्त’ धातुओं का संयोग भी ‘अग्निषोमीयत्व’ प्रतिपादित करता है ।
कहा भी है-
‘अग्निषोमीयत्वाद्गर्भस्य ॥ सु. सू. 14/7.   
‘स खलु द्रवानुसारी स्नेहनजीवनतर्पणधारणादिभि: विशेषै: ‘सौम्य’ इत्यवराम्यते ॥ -सु. सू. 14/3   

       सौम्य रसधातु पर ‘रंजकाग्नि’ की क्रिया होने पर ‘रसरक्तयुग्म’ यह उष्णशीत युग्म बनता है, क्योंकि अग्निषोमीय शरीर में दो प्रकार के परमाणु विद्यमान होते हैं- ‘आग्नेय और सौम्य ! ’ अत: यह युग्म जो मुख्यत: शरीरपोषण हेत्वर्थ बना है, उसमें रस के द्वारा सौम्य और रक्त के द्वारा आग्नेय परमाणुओं का पोषण किया जाता है ।

‘सामान्य -विशेष’ सिध्दान्त यह आयुर्वेद का मूलभूत सिध्दान्त है और उस सिध्दान्त की दृढता पर जिस तरह ‘आदान-विसर्ग’ काल से निसर्ग ‘ऋतुचक्र’ संधारित करता है, धारण-पोषण करता है, उसी तरह शरीर में भी ‘रसरक्त’ युग्म धातुचक्र संधारित करता है।
 
‘‘विसर्गादानविशेषै: सोमसूर्यानिला यथा ।
       धारयन्ति जगद्देहं कफपित्तानिलास्तथा ॥   -  सु. सू. 21.

      इस सूत्र को  ‘‘पित्तं तु स्वेदरक्तयो:’’
                       ‘‘कफस्तु रसस्य मल इत्युक्तम्’’
                       ‘‘श्लेष्मा शेषेषु सर्वेषु’’
                       ‘‘पित्तं रक्तस्य मल इत्युक्तं’’
                       ‘‘किट्टमन्नस्य विण्मूत्रं रसस्य च कफोऽसृज: ।’’

        इन वचनों की पुष्टि देने पर वायुसहित ‘रस-रक्त’ रहकर देह-जगत् को धारण करते हैं, इस बात की निश्‍चिति हो जाती है । ‘कफ’ रसधातु में और ‘पित्त’ रक्तधातु में आश्रयी रूप में रहकर ये कार्य सम्पन्न करते हैं ।

        अब ‘‘नाभिस्थ: प्राणपवन: स्पष्ट्वा हृत्कमलान्तरम्’’ इस वाक्य का अर्थ स्पष्ट होता है । मध्य अन्नपाचन संस्थानस्थ- नाभि परिसरीय संस्थानस्थ रसरक्ताश्रित वायु हृत् संलग्न फुफ्फुस को, कमल को, आभ्यन्तर स्पर्श करके कण्ठ द्वारा बाहर आती है, ऐसा इस वाक्य का सरलार्थ हुआ । ‘स्पृष्ट्वा’ का अर्थ छींटे समान फैलकर संस्पर्शित करना, ऐसा लेना चाहिए, जिसे वायुकोश के भीतर चलनेवाली क्रिया के द्वारा समझा जा सकता है, जहाँ युगपत् रसरक्त फुफ्फुस के अन्तर्गत वायुकोश में छींटे समान फैलते है और वायु फेफडों को भीतर से संस्पर्शित कर कण्ठ से बाहर जाती है । किसी चीज को भीतर से स्पर्श कर निकल जाना, यह क्रिया ‘स्पृष्ट्वा’ इस शब्द के द्वारा दर्शायी गयी है। इस क्रिया में नाभिस्थ ‘प्राण’ का फुफ्फुसों में होनेवाला संचार दर्शाया गया है और प्राणवायु हृत्कमल को स्पर्शकर कण्ठ से बाहर आती है, यह भी कहा गया है ।


अंबज्ञोऽस्मि ।

।। हरि: ॐ ।।