।। हरि: ॐ ।।
१९-०६-२०१४
॥ दत्तमंगलचण्डिकास्तोत्रम् ॥
सद्गुरु श्रीअनिरुद्धसिंहविरचित मातृवात्सल्यविन्दानम् इस ग्रन्थ के ३१वे अध्याय में दत्तमंगलचण्डिकास्तोत्र वर्णित है । स्वयं श्रीपरशुरामजी के मुख से यह स्तोत्र उद्गमित हुआ है । मातृवात्सल्यविन्दानम् में हम यह पढते हैं कि आदिमाता चण्डिका के आठवे अवतार का नाम है- दत्तमंगलचण्डिका! सद्गुरु श्रीअनिरुद्धसिंह ने हमें यह भी बताया है कि अष्टादशभुजा दत्तमंगलचण्डिका यह श्रीगुरुभक्तिरूपा हैं ।
अष्टादशभुजा दत्तमंगलचण्डिका जब प्रकट हुईं, तब उनके स्वरूप का वर्णन मातृवात्सल्यविन्दानम् में हम पढते हैं । उनके किसी भी हाथ में कोई भी शस्त्र नहीं था । उनके दाहिने नौ हाथों में नौ मंगल आशीर्वाद और बायें नौ हाथों में नौ शाप थे।
दत्तमंगलचण्डिका के ये नौ आशीर्वाद-हस्त श्रद्धावानों को अभय और श्रीगुरुभक्तों को वर देते हैं; वहीं उनके नौ शापद-हस्त श्रद्धाहीनों को भय दिखाते हैं और श्रीगुरुभक्तिद्रोहियों को असफलता प्रदान करते हैं।
दत्तमंगलचण्डिका के दोनों नेत्रों में एक ही समय में वीर रस एवं वात्सल्यभाव जागृत थे।
कलियुग के मानवों के लिए तारणहार मानी जानेवाली श्रीगुरुभक्ति अर्थात् दत्तात्रेयभक्ति यही जिनका हृदय है ऐसी उन ‘दत्तमंगलचण्डिका’ ने अपने दोनों पुत्रों को यानी श्रीगुरुदत्तात्रेयजी और श्रीपरशुरामजी संपूर्ण वरदान दिया और फिर वे अन्तर्धान हो गयीं।
तभी श्रीगुरुदत्तात्रेय ने श्रीपरशुराम के माथे पर अपना कृपाहस्त रखकर उनके कार्य के लिए उन्हें आशीर्वाद दिया और परशुरामजी ने अपने ‘हरिहर’ अर्थात् महाविष्णु एवं परमशिव के एकत्रित रूप को धारण करके ‘श्रीदत्तमंगलचण्डिका स्तोत्र’ की रचना कर उसका पाठ करना शुरू कर दिया।
॥ दत्तमंगलचण्डिकास्तोत्रम् ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सर्वपूज्ये देवि मंगलचण्डिके।
ऐं क्रूं फट् स्वाहा इति एवं चाप्येकविंशाक्षरो मनुः॥
पूज्यः कल्पतरुश्चैव भक्तानां सर्वकामदः।
दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम्॥
मन्त्रसिद्धिर्भवेद् यस्य स विष्णुः सर्वकामदः।
ध्यानं च श्रूयतां ब्रह्मन् वेदोक्तं सर्वसम्मतम्॥
देविं षोडशवर्षीयां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम्।
सर्वरूपगुणाढ्यां च कोमलांगीं मनोहराम्॥
श्वेतचम्पकवर्णाभां चन्द्रकोटिसमप्रभाम्।
वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम्॥
बिभ्रतीं कबरीभारं मल्लिकामाल्यभूषितम्।
विम्बोष्ठीं सुदतीं शुद्धां शरत्पद्मनिभाननाम्॥
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां सुनीलोत्पललोचनाम्।
जगद्धात्रीं च दात्रीं च सर्वेभ्यः सर्वसम्पादाम्॥
षोडशकलाधारिणी वज्रपीठमण्डपध्वजाम्।
संसारसागरे घोरे पोतरूपां वरां भजे॥
देव्याश्च ध्यानमित्येवं स्तवनं श्रूयतां मुने।
प्रयतः संकटग्रस्तो येन तुष्टाव शंकरः॥
हरिहर उवाच
रक्ष रक्ष जगन्मातर्देवि मंगलचण्डिके।
हारिके विपदां राशेर्हर्षमंगलकारिके॥
हर्षमंगलदक्षे च शुभमंगलचण्डिके।
शुभे मंगलदक्षे च दत्तमंगलचण्डिके॥
मंगले मंगलार्हे च सर्वमंगलमंगले।
सतां मंगलदे देवि सर्वेषां मंगलालये॥
पूज्या मंगलवारे च मंगलाभीष्टदैवते।
पूज्ये मंगलभूपस्य मनुवंशस्य सन्ततम्॥
मंगलाधिष्ठातृदेवि मंगलानां च मंगले।
संसारमंगलाधारे मोक्षमंगलदायिनि॥
सारे च मंगलाधारे पारे च सर्वकर्मणाम्।
प्रतिमंगलवारे च पूज्ये च मंगलप्रदे॥
स्तोत्रेणानेन शम्भुश्च स्तुत्वा मंगलचण्डिकाम्।
प्रतिमंगलवारे च पूजां कृत्वा गतः शिवः॥
देव्याश्च मंगलस्तोत्रं यः शृणोति समाहितः।
तन्मंगलं भवेत् शश्वत् न भवेत् तद् अमंगलम्॥
मन्त्रध्यानसहितं दत्तमंगलचण्डिकास्तोत्रं सम्पूर्णम्।
शुभं भवतु। शुभं भवतु। शुभं भवतु॥
दत्तमंगलचण्डिकास्तोत्र का संक्षेप में अर्थ-
‘ॐ ह्रीं श्रीं ..... स्वाहा ’ यह इक्कीस अक्षरों वाला मन्त्र, पूज्य एवं कल्पवृक्ष के समान है और भक्तों की सभी पवित्र कामनाओं को पूरा करनेवाला है। दस लाख के जाप से यह मन्त्र सिद्ध हो जाता है। (सद्गुरु से मन्त्र प्राप्त होने पर उस मन्त्र को सिद्ध करने की ज़रूरत नहीं रहती।) पहले तीन श्लोकों के बाद दत्तमंगलचण्डिका मैया का ध्यान वर्णन किया गया है ।
जो सोलह वर्षों की हैं (षोडशवर्षीया) (षोडश यानी सोलह),
जिनकी युवावस्था शाश्वत रूप में (हमेशा ही) सुस्थिर रहती है (शश्वत्-सुस्थिर-यौवना),
जो रूप-गुण आदि सभी ऐश्वर्यों से समृद्ध हैं (सर्वरूपगुणाढ्या),
जिनके अंग कोमल हैं,
जो मन को हरनेवालीं हैं,
सफेद चम्पा के फूल की तरह जिनका रंग है (श्वेतचम्पकवर्णाभा),
चन्द्रमा के समान जिनकी प्रभा शीतल है,
जो अग्निरूपी शुद्ध वस्त्र (रेशमी वस्त्र) पहनती हैं (वह्नि-शुद्ध-अंशुक-आधाना) (अंशुक यानी वस्त्र या रेशमी वस्त्र),
जो रत्न-आभूषणों से विभूषित हैं,
जिन्होंने अपने सिर पर बालों का जूड़ा धारण किया हुआ है (बिभ्रतीं कबरीभारं ) (कबरी यानी बालों का जूड़ा। मराठी में जिसे अंबाडा कहते हैं),
जिन्होंने चमेली की माला या गजरा धारण किया है (मल्लिकामाल्यभूषित) (मल्लिका यानी चमेली) (माल्य यानी हार या गजरा),
जिनके होंठ बिम्बङ्गल के समान लाल रंग के हैं (विम्बोष्ठीं),
जिनकी दंतपंक्ति बड़ी ही सुन्दर है (सुदतीं),
जो शुद्ध हैं,
शरद् पूर्णिमा को खिलनेवाले कमल की तरह जिनका मुख है (शरद्-पद्मनिभ- आनना),
जो मुस्कुरा रही हैं,
जिनका चेहरा प्रसन्न है (ईषद्-हास्य-प्रसन्न-आस्या),
नीलकमल की तरह जिनकी आँखें हैं (सुनील-उत्पल-लोचना) (उत्पल यानी कमल),
जो विश्व का धारण-पोषण करती हैं (जगद्-धात्रीं),
जो सभी को सभी प्रकार की सम्पदाएँ देती हैं,
जो सोलह कलाओं को धारण करती हैं,
जो वज्रपीठ-मण्डप की ध्वजा हैं,
इस घोर संसार-सागर में जो नौकारूपा (पोतरूपा) (पोत यानी नौका) हैं,
उन सर्वश्रेष्ठ देवी दत्तमंगलचण्डिका को मैं भजता हूँ।
(हमें इस स्तोत्र का पाठ करते हुए दत्तमंगलचण्डिका मैया का इस तरह ध्यान करना चाहिए।)
दसवें श्लोक से, विपत्तियों की राशियों को ढ़ेर कर देनेवालीं, हर्ष-मंगल करनेवालीं, शुभ-मंगल करने में दक्ष रहनेवालीं दत्तमंगलचण्डिका से रक्षा करने की प्रार्थना की गयी है। दत्तमंगलचण्डिका सर्वमंगलदायिनी हैं, मंगलों का मंगल हैं, मंगलवार को उनकी पूजा की जाती है, वे गृहस्थी और परमार्थ को मंगलमय बनाती हैं आदि वर्णन है। आख़िरी श्लोक में फलश्रुति कही गयी है कि जो दत्तमंगलचण्डिका के इस मंगल स्तोत्र को महज़ सुनता भी है, तब भी उसका हमेशा मंगल ही होता है, उसका अमंगल नहीं हो सकता। (फिर जो प्रेम से इसका पाठ करता है, उसका तो अवश्य मंगल ही होगा, उसका अमंगल हो ही नहीं सकता।)
इस स्तोत्र के लिए अपने श्रीगुरु दत्तात्रेयजी से वरदान-प्रार्थना करते हुए श्रीपरशुरामजी कहते हैं- ‘‘हे श्रीगुरु! कलियुग में आपकी भक्ति (श्रीगुरुभक्ति) ही तारक है, यह बात मुझसे आदिमाता महिषासुरमर्दिनी ने कही है और इसीलिए आपकी कृपा से मेरे मुख से उद्गमित हुए इस स्तोत्र को कृपा करके ऐसा वर दीजिए जिससे कि श्रद्धावान स्वयं को कलिपुरुष के प्रभाव से दूर रख सके ।
जो सोलह वर्षों की हैं (षोडशवर्षीया) (षोडश यानी सोलह),
जिनकी युवावस्था शाश्वत रूप में (हमेशा ही) सुस्थिर रहती है (शश्वत्-सुस्थिर-यौवना),
जो रूप-गुण आदि सभी ऐश्वर्यों से समृद्ध हैं (सर्वरूपगुणाढ्या),
जिनके अंग कोमल हैं,
जो मन को हरनेवालीं हैं,
सफेद चम्पा के फूल की तरह जिनका रंग है (श्वेतचम्पकवर्णाभा),
चन्द्रमा के समान जिनकी प्रभा शीतल है,
जो अग्निरूपी शुद्ध वस्त्र (रेशमी वस्त्र) पहनती हैं (वह्नि-शुद्ध-अंशुक-आधाना) (अंशुक यानी वस्त्र या रेशमी वस्त्र),
जो रत्न-आभूषणों से विभूषित हैं,
जिन्होंने अपने सिर पर बालों का जूड़ा धारण किया हुआ है (बिभ्रतीं कबरीभारं ) (कबरी यानी बालों का जूड़ा। मराठी में जिसे अंबाडा कहते हैं),
जिन्होंने चमेली की माला या गजरा धारण किया है (मल्लिकामाल्यभूषित) (मल्लिका यानी चमेली) (माल्य यानी हार या गजरा),
जिनके होंठ बिम्बङ्गल के समान लाल रंग के हैं (विम्बोष्ठीं),
जिनकी दंतपंक्ति बड़ी ही सुन्दर है (सुदतीं),
जो शुद्ध हैं,
शरद् पूर्णिमा को खिलनेवाले कमल की तरह जिनका मुख है (शरद्-पद्मनिभ- आनना),
जो मुस्कुरा रही हैं,
जिनका चेहरा प्रसन्न है (ईषद्-हास्य-प्रसन्न-आस्या),
नीलकमल की तरह जिनकी आँखें हैं (सुनील-उत्पल-लोचना) (उत्पल यानी कमल),
जो विश्व का धारण-पोषण करती हैं (जगद्-धात्रीं),
जो सभी को सभी प्रकार की सम्पदाएँ देती हैं,
जो सोलह कलाओं को धारण करती हैं,
जो वज्रपीठ-मण्डप की ध्वजा हैं,
इस घोर संसार-सागर में जो नौकारूपा (पोतरूपा) (पोत यानी नौका) हैं,
उन सर्वश्रेष्ठ देवी दत्तमंगलचण्डिका को मैं भजता हूँ।
(हमें इस स्तोत्र का पाठ करते हुए दत्तमंगलचण्डिका मैया का इस तरह ध्यान करना चाहिए।)
दसवें श्लोक से, विपत्तियों की राशियों को ढ़ेर कर देनेवालीं, हर्ष-मंगल करनेवालीं, शुभ-मंगल करने में दक्ष रहनेवालीं दत्तमंगलचण्डिका से रक्षा करने की प्रार्थना की गयी है। दत्तमंगलचण्डिका सर्वमंगलदायिनी हैं, मंगलों का मंगल हैं, मंगलवार को उनकी पूजा की जाती है, वे गृहस्थी और परमार्थ को मंगलमय बनाती हैं आदि वर्णन है। आख़िरी श्लोक में फलश्रुति कही गयी है कि जो दत्तमंगलचण्डिका के इस मंगल स्तोत्र को महज़ सुनता भी है, तब भी उसका हमेशा मंगल ही होता है, उसका अमंगल नहीं हो सकता। (फिर जो प्रेम से इसका पाठ करता है, उसका तो अवश्य मंगल ही होगा, उसका अमंगल हो ही नहीं सकता।)
इस स्तोत्र के लिए अपने श्रीगुरु दत्तात्रेयजी से वरदान-प्रार्थना करते हुए श्रीपरशुरामजी कहते हैं- ‘‘हे श्रीगुरु! कलियुग में आपकी भक्ति (श्रीगुरुभक्ति) ही तारक है, यह बात मुझसे आदिमाता महिषासुरमर्दिनी ने कही है और इसीलिए आपकी कृपा से मेरे मुख से उद्गमित हुए इस स्तोत्र को कृपा करके ऐसा वर दीजिए जिससे कि श्रद्धावान स्वयं को कलिपुरुष के प्रभाव से दूर रख सके ।
तब श्रीगुरु दत्तात्रेयजी इस स्तोत्र को वरदान देते हुए कहते हैं- हे परशुराम! इस स्तोत्र का 108 बार पाठ करने वाले श्रद्धावान से कलिपुरुष चार हाथ दूर ही रहेगा ।
मातृवात्सल्यविन्दानम् यानी मातरैश्वर्यवेद का यह पवित्र स्तोत्र श्रद्धावानों की सद्गुरुभक्ति को दृढ़ बनाते हुए गृहस्थी एवं परमार्थ को एकसाथ मंगलमय बनाता है।