।। हरि: ॐ ।।
आयुर्वेदस्वर्धुनि:-005
04-06-2014
अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम्
भाग-04
नाभि
हम इस श्लोक का अध्ययन कर रहे हैं-
नाभिस्थ: प्राणपवन: स्पृष्ट्वा हृत्कमलान्तरम् ।
कण्ठाद्बहिर्विनिर्याति पातुं विष्णुपदामृतम् ॥
पीत्वा चाम्बरपीयूषं पुनरायाति वेगत: ।
प्रीणयन्देहमखिलं जीवयञ्जठरानलम् ॥
- शार्ङ्गधरसंहिता खंड 1/5/47/49
‘नाभिस्थ:’-
यहाँ पर ‘नाभि’ इस शब्द का अर्थ केवल शारीर बाह्यदर्शी ‘नाभि’ (Umbilicus)
यह अर्थ न लेते हुए ‘केन्द्रमूलक’ दृष्टिकोण से ‘मध्य अन्नपचन संस्थान,
अग्न्याशय और यकृत्’ यह लेना चाहिए यह मेरा मत है । ‘नाभि’ शब्द से आचार्य
को ‘मध्य’ यही अर्थ अपेक्षित है और खास कर ‘मध्य अन्नपचन संस्थान,
अग्न्याशय और यकृत’ यह अर्थ अपेक्षित है। इस बात को अब सविस्तार रूप से
जानते हैं।
नाभिस्तनान्तरं जन्तोरामाशय इति स्मृत: ।
अशितं खादितं पीतं लीढं चात्र विपच्यते ॥
आमाशयगत: पाकमाहार: प्राप्य केवलम् ।
पक्व: सर्वाशयं पश्चात् धमनीभि: प्रपद्यते ॥
- च.वि. 2/17, 18 (त्रिविधकुक्षीय विमान)
अग्न्यधिष्ठानमन्नस्य ग्रहणात् ग्रहणी मता ।
नाभेरुपरि सा ह्यग्निबलोपस्तंभबृंहिता ॥
-च.चि. 15/57
तस्यान्तरेण नाभेस्तु ज्योति:स्थानं ध्रुवं स्मृतम् ।
तदाधमति वातस्तु देहस्तेनास्य वर्धते ॥
ऊष्मणा सहितश्चापि दारयत्यस्य मारुत: ।
ऊर्ध्वं तिर्यगधस्ताच्च स्रोतांस्यपि यथा तथा ॥
- सु.शा. 4/58, 59 गर्भव्याकरण शारीर
पक्वामाशययोर्मध्ये सिराप्रभवा नाभिर्नाम, तत्रापि सद्यो मरणम् ॥
- सु.शा. 6
‘नाभि’ शब्द से केवल ‘बाह्यनाभि’ इतना ही सीमित अर्थ नहीं लेना चाहिए।
‘नह् बन्धने’ इस धातु से व्युत्पन्न ‘नाभि’ का अर्थ है- बंधी हुई, लपेटी
हुई रचना।इस अर्थ की दृष्टि से नाभि का अर्थ अनेक प्रकार से निकाला जा सकता
है। नाभि यह शब्द ‘लघ्वन्त्र’ (लघु-अन्त्र) (छोटी आंत) (small intestine)
के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है और वास्तव में पचनोत्तर ‘रसधातु’
लघ्वन्त्र से ही यकृत् (Liver) की ओर ही जाती है ।
सुश्रुताचार्य ने गर्भव्याकरण-शारीर अध्याय में कहा है- ‘गर्भ की नाभि में
ज्योति:स्थान होता है, जिसे वायु प्रेरित करता है, जिससे गर्भ का शरीर
बढता है । उष्मा के साथ वायु गर्भ के ऊर्ध्व, अध: और तिर्यक् स्रोतसों को
खोलकर उनकी भी यथोचित वृध्दि करता है । गर्भ में वर्णित ऊपरिनिर्दिष्ट सभी
कार्य यकृत् को ही करने पडते हैं । गर्भनाभिनाडी भी यकृत से ही संबंधित
होती है ।
‘यं संयमं करोति तद् यकृत्’’ यह
यकृत् (य-कृत्) की व्युत्पत्ति बतायी गयी है । ‘संयम’ का अर्थ क्या है?
‘यम् उपरमे’ धातु को ‘सम्’ यह उपसर्ग लगता है, जिससे कि इसका अर्थ होता
है- नियंत्रण रखना, सुव्यवस्था रखना । गर्भ में रसरक्त-संवहन आदि सभी
क्रियाओं का नियमन करनेवाला अवयव इस अर्थ में आचार्य ने इसे ‘यकृत्’ कहकर
सम्बोधित किया है और इसके नाम में ही इस अवयव का कार्य प्रतिपादित किया है।
नाभि का यह शब्दार्थ महज़ ‘यकृत्’ इस अवयव की तर’ ही निर्देश नहीं करता,
बल्कि गर्भ-रसरक्तसंवाहक, नियामक, नियन्त्रक ऐसे सिरा-धमनी में होने वाले
कार्य के कर्ता रहनेवाले यकृत् की तरफ़ इशारा करता है। प्रत्यक्ष शरीर में
भी अन्त्र से आनेवाली रसवाहिनियों के द्वारा रसधातु यकृत् में ही जाता है
और वहाँ से वह हृदय में जाता है ।
ज्योति:स्थान-
अग्निस्थान इस दृष्टि से नाभि का अर्थ ‘अग्न्याशय’ (पँक्रिअॅज) यह भी किया
जा सकता है । अग्न्याशय से ‘अन्नपाचक शर्करा रस’ (इन्सुलीन) और ‘अग्न्याशय
रस’ (पँक्रिअॅटिक ज्यूस) ऐसे दो रस स्रवित होते है । अत: ‘नाभि’ का अर्थ
अग्न्याशय भी लगाया जा सकता है ।
महाप्राचीरा
पेशी (Diaphram) यह उर:-उदर-अवकाश के मध्य में स्थित होने से ‘मध्य’ इस
अर्थ से ‘नाभि’ कहकर उसका भी ग्रहण करना चाहिए, ऐसा भी मुझे लगता है ।
विशेषत:, यहाँ पर शार्ङ्गधर आचार्य ने महाप्राचीरा पेशी की श्वासक्रिया के
समय हो रही ऊर्ध्व-अध: गति देखकर ही ‘नाभिस्थ’ यह पद प्रयुक्त किया होगा ।
साथ ही एक प्रमुख कारण यह है कि हिक्का की संप्राप्ति में, ‘नाभिप्रवृत्ता या हिक्का घोरा गम्भीरनादिनी - सु. उ. 50’ ऐसा कहा है और महाप्राचीरा पेशी ही हिक्का उत्पत्ति में प्रमुख कारण है ।
उपरोक्त विवरण की आवश्यकता सिर्फ इसलिए है क्योंकि-
‘प्रदक्षिणावर्त सोत्संगा च नाभि:’-
‘अन्तोन्नतत्वेन मध्यनिम्ना गम्भीरे इत्यर्थ:’
यह
कविराज गंगाधर आचार्य का मत है और अत एव ‘नाभिस्थ: प्राणपवन:...’ इस
श्लोक में सिर्फ बाह्य नाभि को ही ‘नाभि’ न मानते हुए ‘नाभिस्थ:’ इस पद से
नाभिपरिसरीय रचनाओं का यानी आमाशय अन्तिम भाग, ग्रहणी, अन्त्र, यकृत्,
प्रतिहारिणी सिरा (पोर्टल व्हेन), अग्न्याशय, मध्यप्राचीरा इन सभी का
समावेश नाभि इस शब्द में करना चाहिए, मध्य अन्नपाचन संस्थान का समावेश
कराना चाहिए, जिससे इस श्लोक का अर्थ भी बडी आसानी से समझ में आ जाता है ।
‘नाभि’ शब्द से इतना व्यापक अर्थ ही आचार्य को अभिप्रेत है,
क्योंकि ‘देह-मध्य’ यही ‘नाभि’ पद प्रयोजन की गंभीरता है । और नाभि का ऊपर
दिया हुआ अर्थ ध्यान में लिया जाये, तो प्रत्यक्ष शारीरविज्ञान की दृष्टि
से भी वह सही लगता है ।
‘नह् बन्धने’ धातु का एक अर्थ है-
‘लपेटना’। इस अर्थ को लेते हुए लपेट कर रखी हुई रचना को भी ह’ ‘नाभि’ कह
सकते हैं । जैसे पुराने समय में रेशम की पतली सारी को दियासलाई की डिबिया
में लपेटकर रखा जाता है। आज भी कहीं पर इस तरह की साडियाँ बनायी जाती हैं।
सारांश,
छोटी सी जगह में किसी व्यापक क्षेत्रवाली वस्तु को जब लपेटकर रखा जाता है,
तब उसे नाभि कहा जा सकता है। मस्तिष्क (ब्रेन) की रचना को देखे तो जैसे
किसी वस्त्र को एक के उपर एक करके अनेक परतों में लपेटकर रखा गया हो, ऐसा
प्रतीत होता है । इसीलिए मस्तिष्क को भी नाभि कह सकते हैं ।
इस श्लोक में ‘नाभि’ इस शब्द से लघ्वन्त्र (small intestine) और मस्तिष्क (Brain) ये दोनों अर्थ ग्रहण करने चाहिए। जो रस-रक्त-वायु हृदय में आते हैं, वे Inferior Vena cava & Superior Vena cava
इन दोनों के द्वारा हृदय में आते हैं और इसीलिए अब इस श्लोक का अर्थ इस
तरह होगा- अन्त्र एवं मस्तिष्क दोनों से हृदय की तरफ प्राण रसरक्त को अपने
साथ लेकर आता है यानी नाभिस्थ प्राणपवन हृदय में आता है। अब हम प्राणपवन इस
शब्द के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।