Wednesday, 25 June 2014

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-006 -अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम् भाग-05- Algorithm of Pancha Mahabhootas (Post ih Hindi)

 ।। हरि: ॐ ।।

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-00६


२५-०६-२०१४


अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम्

भाग-0५




नाभिस्थ: प्राणपवन: स्पृष्ट्वा हृत्कमलान्तरम् ।
   कण्ठाद्बहिर्विनिर्याति पातुं विष्णुपदामृतम् ॥
   पीत्वा चाम्बरपीयूषं पुनरायाति वेगत: ।
   प्रीणयन्देहमखिलं जीवयञ्जठरानलम् ॥ 
- शार्ङ्गधरसंहिता खंड 1/5/47/49

‘प्राणपवन:’ यह भी एक विशेष शब्द आचार्यों ने प्रयुक्त किया है । ‘प्राणवायु’ ऐसा इसका सरल अर्थ है । साथ ही प्राणयुक्त, प्राणाश्रित, प्राणसहित रहने वाला प्राणनाथ पवन-वायु यानी प्राणपवन ऐसा मथित अर्थ भी ग्रहण करना चाहिए ।

      ‘‘प्रकर्षेण अनिति गच्छति इति प्राण: ।’’
‘अन् प्राणने’ इस धातु से प्राणशब्द की व्युत्पत्ति हुई है, जिसका विभिन्न दृष्टिकोण से अर्थ लगाया जा सकता है । जीवनसामर्थ्य युक्त, गतिमान प्राण ऐसा प्राण शब्द का सही अर्थ है । पञ्चवायुओं में से प्राणवायु यह अर्थ उसके लिए योग्य है, लेकिन ‘रसरक्तयुग्म’ (युग्म यानी जोडी), जिसे आचार्य ने ‘जीवरक्त’, शोणित, रूधिर ऐसा संबोधित किया है, उस रक्त को भी प्राण कहा जा सकता है ।

‘‘तद्विशुध्दं हि रूधिरं बलवर्णसुखायुषा।
   युनक्ति प्राणिनां प्राण: शोणितं ह्यनुवर्तते ॥   - च. सू. 24/4.

‘‘ प्राण: शोणितं ह्यनुवर्तत इति शोणितान्वयव्यतिरेकं अनुविधीयते ॥  - आचार्य चक्रपाणि

‘‘रक्तं वर्णप्रसादं मांसपुष्टिं जीवयति च ॥   - सु. सू. 15/5.

‘‘रक्तं सर्वशरीरस्थं जीवस्याधारमुत्तमम् ॥   - शा. प्र. 6/10.

‘‘देहस्य रूधिरं मूलं रूधिरेणैव धार्यते ।
   तस्माद्यत्नेन संरक्ष्यं रक्तं जीव इति स्थिति: ॥  - सु. सू. 14/44.


‘‘दशैवायतनान्याहु: प्राणा: येषु प्रतिष्ठिता: ।
   शंखौ मर्मत्रयं कण्ठो रक्तं शुक्रौजसी गुदम् ॥   - च. सू. 25/3.

      आचार्यों के द्वारा प्रतिपादित उपरोक्त विधानों से एवं रक्त का श्रेष्ठ कर्म ‘जीवन’ यह बात ज्ञात होके कारण ‘रक्त’ ही प्राण है, यह मानने में कोई शंका या विरोध नहीं होना चाहिए । ‘प्राण’ संज्ञा हेतु आवश्यक प्रकर्षतापूर्वक गति एवं सामर्थ्य इस नियम की पूर्ति भी रक्त अपने कार्य से करता है । जिस तरह वायु हमारे शरीर में निरन्तर गतिशील रहती है, उसी तरह वायु के संग ‘रसरक्त’ ये जोडी भी निरंतर भ्रमण करती रहती है।
   
   ‘‘तत्र रसगतौ धातु:, अहरह: गच्छति इत्यत: रस: ।’’    - सु. सू. 14/13 यह आचार्य वचन इसी तथ्य को दर्शाता है ।
       ‘‘व्यानेन रसधातुर्हि विक्षेपोचितकर्मणा ।
         युगपत् सर्वतोऽजस्त्रं देहे विक्षिप्यते सदा ॥   - च. चि. 15/36.

        ‘‘रसरूपो धातु: किंवा रसतीति रसो द्रवधातुरुच्यते,
           तेन रूधिरादीनामपि द्रवाणां ग्रहणं भवति.......॥    - आचार्य चक्रपाणि

         ‘‘स (रस:) शब्दार्चिर्जलसंतानवत् अणुना विशेषेण अनुधावत्येव शरीरं केवलम् ॥      
                                                                                            - सु. सू. 14/16.
      

उपरोक्त सभी विधानों से यह निष्कर्ष निकलता है कि हृदयस्थित सर्वशरीरचारी, महाजव ऐसी व्यानवायु ‘रसरक्त’ को संपूर्ण देह में ‘युगपत्’ विक्षेपित करती है ।

         ‘‘रसस्तु हृदयं याति समानमारूतेरित: ।’’   - शा. खं. 1/6/9.

          ‘‘स्वेददोषाम्बुवाहनि स्त्रोतांसि समधिष्ठित: ।
             अन्तरग्नेश्च पार्श्वस्थ: समानोऽग्निर्बलप्रद: ॥   - च. चि. 28/8.

          ‘‘दोषवहानि च स्रोतांसि सर्वशरीरचराण्येव ।’’   - च. वि. 5/3 पर आचार्य चक्रपाणि

     स्वेदवह, दोषवह, अम्बुवह स्रोतों में अधिष्ठित समानवायु के द्वारा ‘रसरक्त’ को हृदय की ओर
लाया जाता है ।

           ‘‘समानो नाभिसंस्थित:’’   - आढमल्ल- शा. खं. 1/5/27.

         इस सूत्र के द्वारा यह अर्थ प्रतिपादित होता है कि सर्व-शरीर-स्रोतों से समानवायु रसरक्त को सर्वप्रथम अपने मूलस्थान ‘नाभि’ में ले आती है और नाभि से हृदय की ओर रसधातु को पहुँचाती है ।

        सारांश- ‘व्यान’ और ‘समान’ इन दोनों वायुओं के स्वकर्म-अनुष्ठान से ‘रसरक्त’ युग्म निरन्तर शरीर में गतिमान रहता है, यह स्पष्ट है और इसी कारण वे दोनों ‘प्राण’ इस संज्ञा को प्राप्त होते हैं ।
      दर असल उपरोक्त विवरणों से एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकलता है कि ‘रस-रक्त-वायु’ ये निरन्तर एकत्रित अवस्था में सर्वशरीरचर रहते हैं ।
योगवाही एवं अनुष्णशीत रहने वाली वायु के कारण ही-
                  ‘‘असृग्वहास्तु रोहिण्य: सिरा नात्युष्णशीतला: ।’’    - सु. शा. 7/18
अर्थात् -     रक्तवाही रोहिणियाँ अनुष्णशीत रहती हैं। 
यह आप्तवचन भी हमें यही निष्कर्ष बताता है कि इस विवरण का संदर्भ ‘प्राणपवन:’ इस शब्द के साथ लगाने पर ‘प्राणरूपी रसरक्तयुग्माश्रित पवनवायु:’ यह सामासिक आचार्य को यहाँ पर ‘प्राणपवन:’ इस शब्द में अभिप्रेत है ।

आढमल्ल आचार्य जी की टीका पढ़ने पर निकाला गया यह अर्थ ही, किस तरह आचार्य ने प्राणपवन इस समासालंकृत शब्द की योजना करके कल्पकता से प्रतिपादित किया है यह ज्ञात होता है और यदि हम मूलशब्द-व्याकरण-तर्क और आचार्यवचन पर दृढ़विश्‍वास रखकर विचार करें, तो निश्‍चित ही उनके द्वारा प्रदत्त बोधामृत प्राप्त कर सकते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है ।

अत एव ‘प्राणपवन:’ इस शब्द का अर्थ यहाँ पर है- ‘प्राणरूपी रसरक्तयुग्माश्रित पवनवायु:’ ।
        ‘‘विद्यावैभव दीजिए श्रीराम । अर्थारोहण दीजिए श्रीराम ॥” यह अभ्यर्थना अन्त:करण में ध्वनित होने पर शब्दों का परदा धीरे से हट जाता है और अर्थभंडार, भाषावैभव एवं ज्ञानप्रकाश सामने आ जाते हैं, मानो प्रभु का सगुणरूप साक्षात्कार हो रहा हो ।



अंबज्ञोऽस्मि ।

।। हरि: ॐ ।।