।। हरि: ॐ ।।
०६-०६-२०१४
हमारा चण्डिकाकुल
कैसे चलता है इन सब ब्रह्माण्डों का कारोबार? मैं कौन हूँ? यह ब्रह्माण्ड कहॉं से उत्पन्न हुआ? मेरा जन्म क्यों हुआ? इस दुनिया को छोड़कर मानव कहॉं चला जाता है? क्या इन ब्रह्माण्डों का लय होता है? किसमें? कौन करता है यह सब?
प्राचीन समय से मानव के सामने उपस्थित होनेवाले इस तरह के कई प्रश्न हैं, जिनके जवाब मानव अपने अपने बल पर खोजता रहता है? हम श्रद्धावानों को परमपूज्य सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी (बापुजी) ने इस संदर्भ में सुन्दर मार्गदर्शन किया है। इन अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों का कारोबार स्वैर अनियन्त्रित रूप में नहीं चल रहा है, बल्कि इन सब पर उन विश्वनिर्माता परमेश्वर का यानी दत्तगुरु का नियन्त्रण रहता है। परमेश्वर के नियमों के अनुसार ही विश्व चलता है।
परमेश्वर कोई मानें या न मानें, लेकिन उनके नियम तो सब को समान रूप से लागू रहते ही हैं। परमेश्वर स्वयमेव स्वतन्त्र कर्ता हैं और वे पूर्ण न्यायी एवं दयालु भी हैं। परमेश्वर के मन में जब विश्व निर्माण करने की इच्छा उत्पन्न होती है, तब वे अपनी स्पन्दशक्ति के रूप में यानी आदिमाता गायत्री चण्डिका के रूप में सक्रिय होते हैं।
परमेश्वर का ही सक्रिय स्वरूप है परमेश्वरी यानी आदिमाता चण्डिका।
ये आदिमाता चण्डिका ही अपने कुल यानी परिवार के साथ इस विश्व का कारोबार चलाती हैं। विश्व केन्द्रबिन्दु में सुधासिन्धु यानी अमृत का सागर है। इस सुधासिन्धु के बीचों बीच कल्पवृक्षों की वाटिका से व्याप्त मणिद्वीप है। वहॉं कदम्बतरुओं का उपवन है और उसमें चिन्तामणिओं द्वारा बनाये गये महल में आदिमाता चण्डिका अपने परिवार के साथ रहती हैं। इस सिद्धान्त का रूपकात्मक बोध अधिक महत्त्वपूर्ण है और सद्गुरु ही यह बोध करा सकते हैं।
आदिमाता चण्डिका के साथ उनके ज्येष्ठ पुत्र श्रीगुरु दत्तात्रेयजी, दत्तात्रेयजी के ही प्रतिरूप रहनेवाले हनुमानजी, चण्डिका के द्वितीय पुत्र किरातरुद्र, किरातरुद्र की पत्नी श्रीशिवगंगागौरी, चण्डिका के कनिष्ठ पुत्र देवीसिंह परमात्मा (परमात्मा की शक्ति आह्लादिनी और परमात्मा के सहचर आदिशेष के साथ) रहते हैं।
प्रत्येक विश्वघटक का निर्माण चण्डिकाकुल के द्वारा किया जाता है और लय भी चण्डिकाकुल में ही होता है। उत्पत्ति और लय के बीच की स्थिति और गति करानेवाला, विश्व को संचालित एवं अनुशासित करने वाला भी चण्डिकाकुल ही है। प्रत्येक विश्वघटक चण्डिकाकुल के अधिकारक्षेत्र में ही रहता है।
प्रत्येक मानव की प्रार्थना जा पहुँचती है, इस चण्डिकाकुल के पास ही और उस मानव की भक्ति के अनुसार उस प्रार्थना को प्रतिसाद (रिस्पॉंज़) मिलता है, वह भी चण्डिकाकुल से ही। चण्डिकाकुल यह विश्व की सरकार ही है।
विश्व-उत्पत्ति-प्रक्रिया को पटाख़े के उदाहरण के द्वारा समझ लेते हैं। पटाख़ा जलाने पर हम क्या अनुभव करते हैं? पटाख़ा जब जलता है, तब पहले दिखायी देता है, "प्रकाश'। फिर पटाख़े की जगह "अग्नि' यानी आग दिखायी देती है और उसके बाद सुनायी देती है, "ध्वनि' यानी आवाज़।
विश्व की उत्पत्ति के समय वह स्पन्दशक्ति आदिमाता प्रसवित होती हैं यानी स्वयं से तीन तत्वों को वे निर्माण करती हैं। अब ज़रा सोचिए, सादे पटाख़े में इतनी ऊर्जा भरी हुई होती है, तो फिर उस आद्यस्पन्दशक्ति में से जब आद्य निर्माण करनेवाला प्र-स्पन्द यानी पहला प्रचण्ड विस्फुरण, महाविस्फोट हुआ होगा, तब कितने समर्थ तत्वों का जन्म हुआ होगा।
"मातृवात्सल्यविन्दानम्' में हम इस महाविस्फोट के बारे में पढ़ ही चुके हैं।
इस महाविस्फोट में से भी तीन तत्त्वों का जन्म हुआ -
1. शुभ्र एवं शुभ प्रकाश यानी दिगंबर दत्तात्रेय।
2. विश्व का मूल अग्नितत्व यानी किरातरुद्र।
3. विश्व का प्रथम स्पन्द,आद्य ध्वनि यानी प्रणव अर्थात् परमात्मा।
आदिमाता गायत्री चण्डिका ने विश्व की उत्पत्ति के समय सब से पहले इन तीन तत्त्वों को जन्म दिया, इसलिए इन तीनों का आदिमाता के तीन पुत्र कहा गया है। पटाख़े में से भी जिस तरह तीन तत्त्वों का जन्म होता है; उसी तरह विश्व के आद्य महाविस्फोट में से चण्डिका के ये तीन पुत्रों का जन्म हुआ।
ये तीनों भी आदिमाता के ही पुत्र हैं, लेकिन इन तीनों के कार्य अलग है और आदिमाता द्वारा ही अपने पुत्रों के लिए ये कार्य नियुक्त किये गये हैं। जिस तरह प्रकाश अपनी जगह, अग्नि अपनी जगह और ध्वनि अपनी जगह यह तत्त्व भोैतिक स्तर पर हम अनुभव करते हैं, उसी तरह इन तीनों भाईयों का अस्तित्व एवं कार्य है।
प्रकाश और विकास अन्योन्य हैं, उन्हें एकदूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। प्रकाश ही विकास कराता है। हम देखते हैं कि एक पौधे का विकास भी प्रकाश के बिना नहीं हो सकता; और विकासशक्ति के अधिष्ठाता हैं- महाप्राण हनुमानजी। अत एव महाप्राण हनुमानजी ये शुभ्र एवं शुभ प्रकाश-स्वरूप रहने वाले दिगंबर-दत्तात्रेयजी के की प्रतिरूप माने गये हैं।
अग्नितत्त्व का कार्य है- सन्तुलन रखना। बाहरी एवं भीतरी सृष्टि के सन्तुलन को उचित बिन्दु पर सॅंभालना यह किरातरुद्र और शिवगंगागौरी का महत्त्वपूर्ण कार्य है। पवित्रता को स्तंभ यानी आधार देना, उचित को प्रेरणा देना और अनुचित का स्तंभन करना यही कार्य श्रद्धावानों के लिए ये दोनों निरन्तर करते रहते हैं।
मानव का मन यह एक जंगल है। इसमें अहंकार, षड्रिपु आदि अनेक खूँख़ार जानवर यानी दुर्वृत्तियॉं विचरण करती रहती हैं। उनका मुक़ाबला करने में मानव की ताकत कम पड़ जाती है। हर एक को अपनी जंग स्वयं ही अकेले लड़नी होती है।
मानव जब सद्गुरुतत्त्व (परमात्मा) की भक्ति करने लगता है, तब उसे क्षणिक मोहों पर विजय प्राप्त करने का सामर्थ्य परमात्मा द्वारा प्रदान किया जाता है। इस प्रक्रिया में से ही इस जंगल में पर्वत की चोटियों का निर्माण होता है। साथ ही परमात्मा के श्रद्धावानों के जीवन में किरातरुद्र सक्रिय हो जाते हैं और वे इस मनोरूपी जंगल में पर्वत की चोटियों के अग्र पर रहते हैं।
खूँख़ार जानवरों की शिकार करना यह उनकी चाव है और श्रद्धावानों को अभय प्रदान करना यह उनकी सहज लीला है। किरातरुद्र इस जंगल के सभी खूँख़ार जानवरों का यानी दुर्वृत्तियों का सफ़ाया करते हैं और श्रद्धावान को विकसित करते हैं।
प्रत्येक मानव को अपना समग्र विकास करने के लिए चिन्तन, शोध और अध्ययन करना ज़रूरी रहता है। इन तीनों तत्त्वों का सन्तुलन बनाये रखने का सामर्थ्य श्रद्धावानों को चण्डिकाकुल से सहजता से प्राप्त होता रहता है। साथ ही दुष्प्रारब्ध एवं प्रारब्धभोगों का विनाश भी चण्डिकाकुल ही करता है। इस चण्डिकाकुल के चरण जहॉं हैं, वही है भर्गलोक, वही है "श्रीगुरुक्षेत्रम्'।
तरल स्वरूप में जो भर्गलोक है, वही सूक्ष्म स्वरूप में नामाकाश है और वही स्थूल स्वरूप में श्रीगुरुक्षेत्रम् है। श्रीगुरुक्षेत्रम् में चण्डिकाकुल सदा ही सक्रिय है क्योंकि यही चण्डिकाकुल का आवासस्थल है। श्रीगुरुक्षेत्रम् की शरण में रहने वाले श्रद्धावान को कभी भी कुरुक्षेत्र पर के महाभारत के भोग भुगतने नहीं पड़ते। अत एव श्रीगुरुक्षेत्रम् की शरण में जाना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है।
ऐसे इस चण्डिकाकुल के प्रतिनिधि हैं, परमात्मा यानी देवीसिंह, जिन्हें महाविष्णु, परमशिव, प्रजापतिब्रह्मा कहा जाता है। चण्डिकाकुल की उपासना कैसे करनी चाहिए इसका मार्गदर्शन करने वालें, श्रद्धावानों को क्षमा दिलाने वालें, हमारी गलतियॉं सुधारने के लिए हमारी सहायता करने वालें, हमें कभी भी धोख़ा न देने वालें, हमारा हित करने के लिए निरपेक्ष प्रेम से परिश्रम करने वालें, हमारे सच्चे मित्र! उनका हाथ सिर पर न हो, तो चण्डिकाकुल की भक्ति भला कैसे की जा सकती है? ये परमात्मा ही हमारी नाल चण्डिकाकुल से पुन: जोड़ देते हैं।
सद्गुरु ही हमारे जीवन में गुरुक्षेत्र का निर्माण करते हैं। सद्गुरु ही हमारे जीवन को चण्डिकाकुल के अधिष्ठान से विकसित करते हैं। सद्गुरु ही हमारे जीवन में रहने वाली हर प्रकार की अनुचितता का, हमारे दुष्प्रारब्ध का लय करते हैं। निरपेक्ष प्रेम से श्रद्धावान की ज़िम्मेदारी अपने सिर पर लेकर हमारी गृहस्थी और परमार्थ को आनन्दमय बनाने वालें सद्गुरुतत्त्व को इस श्लोक के द्वारा गुरुगीता में वन्दन किया है-