Friday, 30 May 2014

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-004 -अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम् भाग-03- Algorithm of Pancha Mahabhootas (Post ih Hindi)

।। हरि: ॐ ।।
आयुर्वेदस्वर्धुनि:-004

30-05-2014


अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम्

भाग-03

द्वितीय विभाग- जत्रुकास्थ्यध: मध्यपटल तक का विभाग- वायु विभाग


‘‘आकाशात् वायु:’’ अर्थात आकाश के पश्‍चात्, आकाश के  नीचे, आकाश से ‘वायु’ महाभूत की उत्पत्ति हुई । शरीर में भी शिरोभाग के नीचे जत्रुकास्थि (क्लॅव्हिकल) से श्‍वासपटल (डायफ्रॅम) तक का भाग वायुमहाभूत के अधिकार क्षेत्र में आता है और साथ ही ऊर्ध्वशाखा यानी दोनों हाथ भी वायु से प्रभावित क्षेत्र में ही आते हैं ।

          ‘‘रजोबहुलो वायु:’’- रजोगुण-बहुलता से वायु की उत्पत्ति होती है ।
          ‘‘रजो गत्यात्मकं’’ अर्थात् रजोगुण यह गतिमूलक प्रवृत्त्यात्मक है ।

       शरीर का यह भाग वायु के अधिपत्य में होने का सबसे प्रमुख कारण है- शरीरगत वायु का सबसे बडा स्थान ‘फुफ्फुस’ (लंग्ज्) इसी क्षेत्र में हैं।

         फुफ्फुस शब्द की ‘फुफ्फुसायते अनेन इति फुफ्फुस:’’ इस व्युत्पत्ति में ही फुफ्फुस-वायु संबंध स्पष्ट होता है । वायु के आवगमन से ‘फुस्’ ‘फुस्’ ऐसी ध्वनि जिसमें आती है ऐसा शरीर का एकमात्र भाग है- ‘फुफ्फुसद्वय’ (टू लंग्ज्)!
       
 शरीर की दृष्टि से वायु के दो प्रकार किये जा सकते हैं-
1)     बाह्यवायु (शरीर के बाहर, वातावरण में रहने वाली वायु) और
2)     कर्मवायु (शारीर-वायु)

बाह्यवायु  को शरीर-उपकारक रूप में परिवर्तन कर शारीर वायु का पोषण कर, उसके द्वारा शारीर कार्य क्रियान्वित करनें में फुफ्फुस (लंग्ज़) यह एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है ।

‘‘नाभिस्थ: प्राणपवन: स्पृष्ट्वा हृत्कमलान्तरम् ।

   कण्ठाद्बहिर्विनिर्याति पातुं विष्णुपदामृतम् ॥

   पीत्वा चाम्बरपीयूषं पुनरायाति वेगत: ।

   प्रीणयन्देहमखिलं जीवयञ्जठरानलम् ॥ ’’

- शार्ङ्गधरसंहिता खंड 1/5/47/49


        आचार्य शार्ङ्गधर ने श्‍वसनक्रिया का जो वर्णन किया है, वह अत्यन्त समर्पक है । रूपकात्मक वर्णन वाले इस श्लोक में ‘हृत्कमलान्तरम्’ इस पद में फुफ्फुस का उल्लेख आचार्य ने बडी कुशलता से किया है ।

          ‘कमल’ यह शब्द वैशिष्टयपूर्ण है; इसके यथाव्युत्पत्ति अनेकविध अर्थ निकलते हैं ।
         ‘‘कं जलं, तं अलति भूषयति इति कमलम् ।’’ कमल शब्द की इस व्युत्पत्ति में ‘क’ का अर्थ है- ‘जल’।
इस के अलावा ‘क’ इस शब्द के ‘जल, ताम्र, औषधि, सारस पक्षी, मूत्राशय’ आदि अर्थ भी हैं ।

          आयुर्वेदवेत्ता यह जानते ही होंगे कि ‘‘कं जलं, तेन जलेन फलति इति कफ:।’’ इस तरह ‘कफ’ शब्द बना है; वहीं ‘कपाल’ इस शब्द की व्युत्पत्ति है- ‘‘कं नाम शिर:, तं पालयति  इति कपाल:’’, जिसमें ‘क’ का अर्थ ‘सिर’ है ।

         लेकिन यहाँ पर इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि ‘कमल’ इस शब्द की व्युत्पत्ति में ‘क’ को ‘कं’ ऐसा नपुंसकलिंगी न लेते हुए ‘क:’ ऐसा पुल्लिंगवाचक लेना चाहिए । ‘क: शब्द का संस्कृत शब्दकोश में, ‘ब्रह्मा, विष्णु, कामदेव, अग्नि, यम, सूर्य, मेघ, ध्वनि, राजा’ आदि अनेक अर्थोंसहित ‘वायु’ यह अर्थ भी दिया हुआ है, जो यहाँ पर सार्थक लगता है ।

अब ‘ककुभ:’ इस शब्द को ही लीजिए। आयुर्वेदवेत्ता जानते ही होंगे कि ककुभ यह अर्जुन का पर्यायवाची शब्द है । ककुभ यह अर्जुन वृक्ष का नाम है। अब ककुभ इस शब्द की व्युत्पत्ति देखिए।
ककुभ:’ शब्द की व्युत्पत्ति है-
1)     कस्य वायो: कु स्थानं भाति इति ककुभ:।
वा
2)     कं वातं स्कुभ्नाति विस्तारयति इति ककुभ:।

‘‘मल’’ का साधारण अर्थ हम ‘त्याज्य भाग’ इस तरह लेते हैं । लेकिन वास्तवत: विचार करने पर ‘मल धारणे’ अथवा ‘मृज शौचालंकारयो:’ या ‘‘मृजूष् शुध्दौ’’ इन धातुओं से भी ‘मल’ शब्द की व्युत्पत्ति बतायी गयी है । अत एव इन तीनों धातुओं का समन्वयात्मक विचार करने पर संधारण करना, पकड़ना, स्वच्छ करना, पवित्र करना, सजाना, अलंकृत करना, साङ्ग करना, परिमार्जन करना ऐसे अर्थ सामने आते है ।

      ‘‘क: नाम वायु: तं मल्यते धार्यते अनेन इति कमल: ।’’
      ‘‘क: नाम वायु: तं मल्यते शुध्यते अलंकार्यतेऽपि वा अनेन इति कमल: ॥

         इस तरह ग्रहण किये गये कमल इस शब्द के दोनों अर्थ सयुक्तिक हैं और आचार्य-अभिप्रेत भी हैं । हमारे आचार्यों ने ‘फुस्’ ‘फुस्’ इस ध्वनि का विचार करते हुए निरंतर वायुमूलक आकुंचन-प्रसार करनेवाली रचना को ‘फुफ्फुस’ तो कहा ही है, साथ ही अपनी अतुलनीय विद्वत्ता एवं वर्णनशैली के अनुसार शरीरान्तर्गत क्रियाओं में दुष्ट होनेवाली वायु को शुध्दि एवं पवित्रता प्रदान करनेवाला, धारण करनेवाला ऐसा ‘कमल’ शब्द फुफ्फुस के लिए प्रयुक्त कर उसके कार्य का सुसंपूर्ण वर्णन भी किया है ।

      हमारे शंकालु मन को कदाचित ‘हृत्कमलान्तरम्’ इस पद में स्थित ‘कमल’ इस शब्द का ‘फुफ्फुस’ यह अर्थ लेना चाहिए या नहीं, आचार्यों को ‘कमल’ इस शब्द के द्वारा यही अभिसूचित कराना है या नहीं, क्या इस तरह का अर्थ योग्य है या नहीं, इस तरह के प्रश्‍न सता सकते हैं। परन्तु इन सभी प्रश्‍नों का उत्तर ‘हाँ’ है । हमारे आप्त आचार्यों ने जिस स्तर पर यह लेखन किया है, जिस उच्च शैली में यह प्रस्तुत किया है, वह समझने के लिए हमारी अल्पबुध्दि असमर्थ होने के कारण ही हमारे मन में ऐसी आशंका उत्पन्न होती है और हम सोच में पड जाते हैं
। 
‘हृदय यही कमल है’ इस तरह ‘हृत्कमल’ इस सामासिक शब्द का विच्छेद करना चाहिए ऐसा भी कोई कह सकता है और यह गलत भी नहीं है। क्योंकि सर्वशरीरस्थ ‘वायु’ सर्वप्रथम हृदय में आकर वहाँ से फुफ्फुसों में भेजी जाती है ।
लेकिन ‘हृत् से यानी हृदय से संबंधित, संलग्न, संबध्द ऐसा कमल’ इस तरह ‘हृत्कमल’ इस शब्द का मध्यमपदलोपी समास के रूप में भी अन्वय लगाया जा सकता है । दर असल ‘ आचार्य आढमल्ल’  ने ‘फुफ्फुस: स्वनामख्यात: शोणितफेनप्रभव: हृदयनाडिकालग्न: ’ इस तरह ही फुफ्फुस का वर्णन किया है । इस से हृदय-फुफ्फुसों के बीच का अन्योन्यसंबंध आयुर्वेद के आचार्यों को उस समय से ही सुविज्ञात था और इसीलिए ‘हृत्कमल’ इस सामासिक शब्द का प्रयोग उन्होंने किया है ।
‘अन्तरम्’ इस शब्द की विशेषता पर भी ध्यान देना चाहिए। वायु की सभी क्रियाएँ हृदय एवं फुफ्फुसों की बाह्य रचना को स्पर्श न करते हुए अन्त:भाग में होती हैं । इसीलिए ‘अन्तरम्’ इस शब्द का प्रयोग किया गया है।
हृदय और हृत्संलग्न फुफ्फुसों के अंत:स्थ अवकाश को ‘प्राणपवन’ स्पर्श करके जाते हैं । ‘कमल’ में यानी फुफ्फुसों में वायु की शुध्दि की जाती है, ऐसा स्पष्ट अर्थ इससे निकलता है और इसी दृष्टि से ‘हृत्कमलान्तरम्’ ऐसा पद यहाँ पर प्रयुक्त किया गया है ।
‘कमलम्’ इस शब्द की व्युत्पत्ति (क=कलयति + मल) ‘कलयति अपांकरोति मलं इति कमलम्’ इस प्रकार से भी की जा सकती है। फुफ्फुसों का कार्य भी रक्त में से मलवायु को दूर करना यही है, इसीलिए आचार्यवर ने फुफ्फुस को कमल कहकर संबोधित किया है। नाभिस्थ: प्राणपवन: ... इस श्‍लोक के संदर्भ में जितना किया जाये उतना अध्ययन कम ही प्रतीत होता है और प्राचीन आचार्यों की प्रतिभा के सामने हम नतमस्तक हो जाते हैं।

अंबज्ञोऽस्मि ।

।। हरि: ॐ ।।

Monday, 26 May 2014

न्हाऊ तुझिया प्रेमे - अनिरुद्धप्रेमोत्सव- Nhau Tujhiya Preme (Post in Marathi)

।। हरि: ॐ ।।

२६-०५-२०१४

न्हाऊ तुझिया प्रेमे - अनिरुद्धप्रेमोत्सव








Thursday, 22 May 2014

त्रिविक्रम जल- Trivikram Jal (Post in Marathi)

।। हरि: ॐ ।।
22-05-2014

त्रिविक्रम जल 

त्रिविक्रम जलाची बाटली एक वर्षानंतर गुरुक्षेत्रम्‌मध्ये येऊन पुढील विधिने बाटली पुन्हा भारित म्हणजेच सिद्ध करून घ्यावी.
विधि-
१) एकदा गुरुक्षेत्रम्‌मंत्र म्हणावा.
२) ‘ॐ त्रातारं इन्द्रं अवितारं इन्द्रं हवे हवे सुहवं शूरं इन्द्रंम्‌।
ह्वयामि शक्रं पुरुहूतं इन्द्रं स्वस्ति न: मघवा धातु इन्द्र: ॥’
हा मंत्र अकरा वेळा म्हणावा.
३) पुन्हा एकदा गुरुक्षेत्रम्‌मंत्र म्हणावा. 
काही अपरिहार्य कारणामुळे एक वर्षानंतर गुरुक्षेत्रम्‌ला येऊन बाटली सिद्ध करणे शक्य न झाल्यास म्हणजेच एक वर्षापेक्षा अधिक काळ झाल्यास ‘ॐ त्रातारं इन्द्रं अवितारं इन्द्रं हवे हवे सुहवं शूरं इन्द्रम्‌। ह्वयामि शक्रं पुरुहूतं इन्द्रं स्वस्ति न: मघवा धातु इन्द्र: ॥’ हा मंत्र ११ ऐवजी २२ वेळा म्हणावा, असाही पर्याय सद्गुरु श्रीअनिरुद्धांनी दिला आहे.  









Wednesday, 21 May 2014

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-003 -अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम् भाग-02- Algorithm of Pancha Mahabhootas (Post ih Hindi)

।। हरि: ॐ ।।
आयुर्वेदस्वर्धुनि:-00३

21-05-2014


अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम्

भाग-0२


आकाश


       आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पंचभूतों से सृष्टि की रचना हुई है। मानवदेह भी पांचभौतिक है। हम‘पंचभूतसिध्दान्तमूलक शारीर विचार’ कर रहे हैं।

शरीर-रचना की दृष्टि से पंचभूतों का विचार करने से पहले शरीर के ‘पंच विभाग’ समझ लेना आवश्यक है ।

प्रथम विभाग- ऊर्ध्वजत्रुगत प्रदेश अर्थात शिर: ।
द्वितीय विभाग- अधोजत्रुगत मध्यपटलपर्यन्त प्रदेश, उभय ऊर्ध्वशाखाओं सहित।
तृतीय विभाग- नाभिसंस्थान
चतुर्थ विभाग- अधोनाभीय बस्तिपर्यन्त प्रदेश
और
पञ्चम विभाग- गुद, नितंब एवं उभय अध: शाखाओं सहित प्रदेश !!

                  ‘‘ प्रथम विभाग- ऊर्ध्वजत्रुगत शिर:प्रदेश’’


‘‘ ऊर्ध्वमूलमध:शाखं ऋषयं पुरुषो विदु: ॥ यह पंक्ति आपने सुनी ही होगी।

‘‘प्राणा: प्राणभृतां यत्र श्रिता: सर्वेन्द्रियाणि च ।
   यदुत्तमांगमंगानां शिर इत्यभिधीयते ॥    - चरकसंहिता सूत्रस्थान 17

        ये दो उक्तियाँ ‘शिर’ का ‘मूलत्व’ यानी ‘उत्तम-अंगत्व’ स्पष्ट करती हैं । ‘आकाश’ यह जिस तरह समस्त महाभूतों का मूल है, वैसे ही शरीरवृक्ष का मूल ‘शिर’ ही है ।

  ‘‘शिरसि इन्द्रियाणि इन्द्रियप्राणवहानि च स्रोतांसि सूर्यमिव गभस्तय: संश्रितानि...... ॥
                                                                                                    - चरकसंहिता सिद्धिस्थान 9/4.

     चरकाचार्य का सिध्दिस्थानस्थ त्रिमर्मीय अध्यायगत यह वचन भी शिर के अन्योन्यमहत्व को सदृष्टान्त स्पष्ट करता है ।

       ‘शिर’  यह आकाश के अधिपत्य में आता है । उपनिषदों में भी ‘शिर’ का वर्णन ‘मानवदेहस्थ गुहा, अवकाश’ इस तरह ही किया गया है । ‘शिर:-अस्थिकरोटी’(स्कल), ‘मुखगुहा’(माऊथ), ‘मन्यागुहा’ (नेक) जैसे आकाश-स्थान इसी में है और ‘शब्द’ इस आकाश-गुण की उत्पत्ति करनेवाला ‘स्वरयंत्र’ भी ऊर्ध्वजत्रुप्रदेश में स्थित है ।  

       ‘‘सत्त्वबहुलं आकाशम्’’ -
        ‘‘सत्त्वात् संजायते ज्ञानम्’’-

        आकाश यह सत्त्वबहुल होने से और सत्त्व यह ज्ञानप्रकाशक होने से शिरोभाग में ही समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ एवं स्रोतस्-केन्द्रों के ‘मूल’ प्रतिष्ठित है । यह सारी रचनाएँ मानवशरीर में इस प्रदेश के अलावा कहीं और स्थित होना असंभव होगा, सिध्दान्तविरुद्ध होगा ।

       यहाँ क्या ‘मस्तिष्क’ पृथ्वीतत्त्व का नहीं है? और शिर:करोटी (स्कल) यह रचना अस्थि से बनी होने से क्या पृथ्वीतत्त्व की नहीं है? ऐसे प्रश्‍न उपस्थित हो सकते हैं । लेकिन रचनात्मक दृष्टि से विचार करने पर ये प्रश्‍न तुरंत ही हल हो जाते हैं । मस्तिष्क यह पार्थिव प्रतीत होने पर भी, जिस तरह किसी वस्त्र को अनेक परतों में लपेटकर रख दिया जाने पर वह जैसा दिखायी देगा, ठीक वैसा दिखायी देता है । इसी कारण वह भार में भी हलका होता है । उसके आकारमान की अपेक्षा उसका वस्तुमान कम होता है । इस से ‘आकाश’ महाभूत का ही आधिक्य मस्तिष्क में स्पष्ट रूप से दिखायी देता है ।

‘‘काशृ दीप्तौ’’ धातु (व्हर्ब) का अर्थ है- प्रकट होना, चमकना, उज्वल या सुन्दर दिखायी देना। आकाश शब्द में यही धातु है। जिस तरह ब्रह्माण्ड में पंचमहाभूतों में से आकाश यह महाभूत सर्वप्रथम प्रकट होता है, उसी तरह की तरह शरीर में ‘ज्ञान’ सर्वप्रथम मस्तिष्क में ही प्रकट होता है ।

‘करोटी अस्थि’ यह क्या पार्थिव तत्त्व नहीं है? फिर उस पर आकाश की सत्ता कैसे? आइए, इन निम्नलिखित सूत्रों पर विचार करते हैं।
‘‘तत्रास्थनि स्थितो वायु:’’- अष्टांगहृदय सूत्रस्थान 12
‘‘अस्थि पृथिव्यनिलात्मकम्’’  सुश्रुतसंहिता सूत्रस्थान 15/8- भानुमती टीका.
‘‘पृथिव्यग्न्यनिलादीनां संघात: श्लेष्मणा कृतम् ।
   खरत्त्वं प्रकरोत्यस्य जायतेऽस्थि ततो नृणाम् ॥
   करोति तत्र सौषिर्यमस्थ्नां मध्ये समीरण: ॥    - चरकसंहिता चिकित्सास्थान 15/30, 31

     इन सूत्रों से अस्थिगत वायु और आकाश इन भूतों का भी सहभाग स्पष्ट होता है । विशेषत: ‘सौषिर्य’ यह आकाशीय गुण ‘करोटी अस्थियों में’ विशेष रूप से प्राप्त होता है । शरीर की अन्य अस्थियों की अपेक्षा करोटी अस्थियों का वज़न क’ होता है । इससे उनका आकाशीयत्व स्पष्ट हो जाता है ।
ज्ञान का अधिष्ठान रहने वाला, शब्दोत्पत्ति जहाँ होती है ऐसा, ज्ञानेन्द्रियों का आवास स्थल रहने वाला और शरीर का सबसे बडा अवकाश, गुहायुक्त स्थान रहने वाला ‘शिर’ यह आकाशमहाभूत की सत्ता में है, यह इस विवेचन से स्पष्ट होता है । आकाश विवरण में और अधिक गहराई से विचार किया जा सकता है । विशेषत: सभी ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान प्राप्ति हेतु अवकाश की नितान्त आवश्यक्ता है ।

        कर्ण की रचना में, अन्त:, मध्य एवं बाह्य कर्ण की रचना अवकाश से बनी ही बनी है और उसके अभाव में शब्दज्ञान ही नहीं होगा, यह हम जानते ही हैं । कर्णपटल के सामने का कर्णपथ अवरुद्ध होने पर श्रवण यह कार्य नहीं होगा । नासमार्ग के अवकाश के कारण ही झर्झरास्थि से आनेवाले नासा-चेता-तंतुओं को एवं घ्राणेन्द्रिय को अपना कार्य करने ही का सामर्थ्य प्राप्त होता है । यदि झर्झरास्थि सौषिर्ययुक्त नहीं होती, तो ‘नासा हि शिरसो द्वारम्’ यह भी नहीं कहा जाता (नासा हि शिरसो द्वारम् इसका स्पष्टीकरण सद्गुरु डॉ. श्री. अनिरुद्धसिंह ने बहुत ही सुन्दरता से किया है) और गंधज्ञान भी नहीं हो पाता । अत: आकाश का उसमें महत्त्व स्पष्ट लक्षित होता है ।

       यदि मुखविवर नहीं होता, तो जिह्वा के विभिन्न हिस्सों पर पदार्थ सरलता से नहीं रह पाते और रसज्ञान भी नहीं हो पाता । इसी तरह जिह्वा पर स्थित अंकुर (टेस्ट बड्स्), जिन से रसज्ञान होता है, उनमें स्थित अवकाश यह विशेष ज्ञान हेतु आवश्यक होता है । रसना को भी स्वयं की चेष्टा हेतु ‘ख’त्व की आवश्यकता होती है । नेत्र में भी प्रकाशकिरण पटल पर केन्द्रित होने के लिए अवकाश की आवश्यकता होती है । और त्वचा के विषय में तो क्या कहना! अनगिनत रोमकूप एवं स्वेदवह स्रोतों से त्वचा व्याप्त है, अत: वहाँ पर अवकाश का होना सिध्द है ।

        चेतातंतु (न्यूरॉन) की रचना में भी अवकाश की आवश्यकता होती ही है । उनकी रचना का वैशिष्टय वस्तुत: ‘आकाशमूलकत्व’ है, यही कहा जा सकता है । यंत्रों की सहायता से आज के वैज्ञानिकों ने जो प्रत्यक्ष दिखाया, वही हमारे प्राचीन आचार्यों ने अपनी ज्ञानचक्षुओं के बल पर पहले ही देखकर बीजरूप में लिख रखा है ।
‘चेतातंतु’ आकाश के अधिपत्य में आने से उनकी रचना में ‘आकाशत्व’ होना निर्विवाद शास्त्रसिध्दान्त सम्मत है ।

       इस कार्यकारणभाव को पढ़ने पर आचार्यों की विशाल बुध्दि को हम मन ही मन वंदन करते हैं, जिन्होंने स्थूलतम से सूक्ष्मतम तक का सभी वर्णन अल्प अक्षरों में, बीजरूप में किया है।
यहाँ पर मैंने अपनी मतिक्षमता के अनुसार प्रयास किया है । सद्गुरुतत्त्व ने मेरे मन के आकाश में शरीर के आकाशीय भाग में यानी मस्तिष्क में जो उत्पन्न किया, उसे ही मैं कागज़ के आकाश पर उतार रहा हूँ । सब कुछ गगनसदृश सद्गुरुतत्त्व का ही है। अधिक गहराई से इस मुद्दे पर विचार किया जा सकता है । ‘आकाश’ और ‘शिर:प्रदेश’ इनका साधर्म्य स्पष्ट करने का यह यथाशक्ती किया गया प्रयास है। इसके बाद ह्म मानव-शरीर के द्वितीय विभाग का यानी जत्रुकास्थ्यध: (जत्रुकास्थि-अध:) मध्यपटल तक के वायु विभाग का अध्ययन करेंगे।

अंबज्ञोऽस्मि ।

।। हरि: ॐ ।।

Saturday, 17 May 2014

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-002 -अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम् भाग-01- Algorithm of Pancha Mahabhootas (Post ih Hindi)

।। हरि: ॐ ।।
17-05-2014

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-002





अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम्

भाग-01



तस्माद् वा एतस्माद् आत्मन आकाश: संभूत: ।

आकाशाद्वायु: । वायोरग्नि: । अग्नेराप: । अद्भ्य: पृथिवी ॥

- तैत्तिरीय उपनिषद्- ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवाक् 1/2


तैत्तिरीय उपनिषद् यह कृष्ण यजुर्वेद का उपनिषद् है । उसके तीन विभाग हैं- शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली । ऊपर निर्दिष्ट वचन जिस ब्रह्मानन्दवल्ली से लिया गया है, उससे पहले वहाँ पर हम सब को सुविदित रहनेवाली -


ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सहवीर्यं करवावहै ।

  तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥



यह प्रार्थना है और तत्पश्चात् ही ब्रह्मज्ञान प्रतिपादन में विश्‍व की उत्पत्ति प्रतिपादित करने वाला यह विवेचन है । 
     
       इसमें प्रतिपादित महाभूतोत्पत्तिक्रम को आयुर्वेद के आर्ष ग्रन्थों की भी मान्यता है । इस सूत्र का अर्थ भी अनेक विद्वानों ने अपने अपने दृष्टिकोण से पृथक् पृथक् विवेचित किया है, किन्तु मैं व्याकरणशास्त्र के नियमों के अनुरूप एवं आयुर्वेदीय सिध्दान्त तथा आयुर्वेदीय शरीरशास्त्र को पूरक दृष्टि से इस सूत्र का अध्ययन कर रहा हूँ ।

      मानवशरीर के विविध अंग-उपांग, अवयव आदि का स्थान मानवशरीर में विशिष्ट जगह पर ही क्यों है? मानवशरीर की रचना जैसी आज है वैसी ही क्यों है? नेत्र, श्रोत्र, नासा, जिह्वा, हृदय, फुफफुस, यकृत्, प्लीहा, उण्डुक, बस्ति, हस्त, पाद आदि अपने विशिष्ट एवं परस्परोपकारक स्थिति में किस प्रेरणा से कार्यरत हैं? उनकी अन्यत: रचना क्यों नहीं है? उनकी स्थिति के पीछे का कार्यकारण भाव क्या है? इन प्रश्‍नों के उत्तर भी पंचभूतविचार से प्राप्त होंगे।

       तैत्तिरीय उपनिषद के इस वचन का अर्थ जानते हुए उसमें प्रत्येक महाभूत के उत्पत्ति वर्णन में ‘पञ्चमी विभक्ति’ प्रयुक्त हुई है । जैसे कि ‘आकाशात् वायु:’ कहते हुए आकाश इस शब्द की पंचमी विभक्ति ‘आकाशात्’ का प्रयोग हुआ है।
आकाश से वायु, वायु से अग्नि इस तरह पृथ्वी तक क्रमश: उत्पत्ति बतायी गयी है । व्याकरणभास्कर आचार्य ऋषिवर पाणिनि ने अपने अष्टाध्यायी ग्रन्थ में पञ्चमी विभक्ति को स्पष्ट करनेवाला ‘‘अपादाने पञ्चमी ’’ (सूत्र- 2/3/28) ऐसा सूत्र लिखा है । अपादानार्थ क्रिया में पञ्चमी का प्रयोग करें, ऐसा स्पष्ट अर्थ इससे प्रतीत होता है ।
‘‘अपादान’’ इस शब्द की व्युत्पत्ति अनेक अर्थों से बतायी जा सकती है। पंचमी विभक्ति का प्रयोग प्राय: स्थानविश्लेष हेतु यानी एक जगह से दूसरी जगह होने वाली गति को दर्शाने के लिए किया जाता है।
‘‘अप् अधस्तात् आदानं स्थानविश्लेषं इति अपादानम्’’ इस तरह भी ह’ इसे प्रतिपादित कर सकते हैं। इसका अर्थ यह ग्रहण कर सकते हैं कि यहाँ पर पञ्चमी विभक्ति से अधो दिशा में विश्लेषत्व गति अपेक्षित है ।
इसी अर्थ को महाभूतों के उत्पत्तिक्रम में प्रयुक्त करने पर ‘आकाशात् वायु:’ इस पद का अर्थ होगा- आकाश से, आकाश पश्‍चात् एवं आकाश के अधोस्थान में वायु का निर्माण हुआ। यही अर्थ सा’ सा’ अभिव्यक्त होता है । इसी तरह पृथ्वीपर्यन्त अधोस्थान में महाभूतों का निर्माण होने के पश्‍चात् ब्रह्माण्ड के विशेष भावित्वकारी निर्माणार्थ उपकार हेतु से महाभूतों का ‘‘परस्परानुप्रवेश’’ होता है; जिस से इस चित्रविचित्र सृष्टि का सृजन होता है । सुश्रुताचार्य ने भी कहा है- ‘‘अन्योऽन्यानुप्रतिष्टानि.......’’ (सुश्रुतसंहिता शारीरस्थान 1/21.)

       इस विवेचन से ब्रह्माण्डस्थ पांचभौतिक सृजन स्पष्ट होता है । बीजरूप सृजन ‘‘अपादानत:’’ होता है, वहीं प्रसवरूप सृजन ‘परस्परानुप्रवेश’ से विरुद्ध दिशा में प्रथम और पश्‍चात् ‘सर्वदिशाव्यापी’ होता है । अपादान शब्द का ‘अधोदिग्सूचक अर्थ’ मुझे यहाँ पर महत्वपूर्ण लगता है । ब्रह्माण्ड के पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति में ‘अपादानात्मक सृजन’ यह ‘शारीर’ दृष्टिकोन से भी उतना ही महत्त्व रखता है । ‘यद् ब्रह्माण्डे तद् पिण्डे’ इस सर्वसामान्य सिध्दान्त से मानवदेह में महाभूतों की उत्पत्ति का यही क्रम होना चाहिए । सूक्ष्मविचार एवं निरीक्षणोत्तर मानवदेह की रचना भी इसी पंचमहाभूतसिध्दान्त पर आधारित है, यह स्पष्ट होता है ।

       प्रकृति के दो धर्म हैं- बीजधर्म और प्रसवधर्म ! जैसे ब्रह्माण्ड में बीजधर्मीय प्रकटन से महाभूतों की प्रथम रचना सुघटित हुई, वैसे ही शरीर में भी ‘‘अपादानात्मक’’ दिशा में भूतों की रचना हुई । प्रसवधर्मीय प्रकटन में जिस तरह विरुद्ध दिशा में प्रथम और पश्‍चात् सर्व दिशाओं में महाभूत प्रसवित हुए, उसी तरह शरीर में ‘भूत’ दोषों का रूप धारण कर विरुद्ध दिशा में प्रथम और पश्‍चात् सभी दिशाओं में प्रसवित हुए ।
       अत: शरीर-रचना की दृष्टि से हम यदि शिर:प्रदेश (सिर) से शुरुआत करें, तो आकाश आदि भूतों का रचनात्मक प्रभाव सिर से शुरू होकर अधोदिशा में दृग्गोचर होता है, वहीं क्रिया की दृष्टि से विरुद्ध दिशा में अधोनाभीय स्थान में वातदोष, हृन्नाभिमध्य में पित्तदोष तथा हृदप्रदेशोर्ध्व में कफदोष अपने कार्य में प्रवृत्त हैं । अत एव ‘पंचभूत-सिध्दान्त’ और ‘त्रिदोष-सिध्दान्त’ यह परस्पर-विरोधी न होकर बीज-प्रसव-धर्म से, ‘रचना-क्रिया’ भेद से परस्पर-उपकारक एवं परस्पर-पूरक ही है । मानवदेह में ‘पंचमहाभूत’ यह बीजरूप अवस्था में रचनाकारक है, किन्तु यही ‘पंचमहाभूत’ प्रसवधर्म को प्राप्त होकर देह में ‘दोषस्वरूप’ धारण करते हुए क्रियाकारक होते है । देहप्रकृति के ‘पंचमहाभूत’ बीज है और ‘त्रिदोष’ यही उसके प्रसवभूत है ।
        इनमें से त्रिदोषों का कार्यमूलक विचार आयुर्वेद-ग्रन्थों में विपुलता से है, किन्तु ‘शारीर पंचभूतों का रचनात्मक विचार’ सविस्तार एवं सुस्पष्ट रूप में प्रतिपादित न होने से ‘‘पंचभूतसिध्दान्तमूलक शारीर विचार’’ यह विचारणीय विषय है, जिसपर मैं अपने दृष्टिकोण से मन्तव्य स्पष्ट कर रहा हूँ । सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने ही मुझे इस चिन्तन की प्रेरणा दी है, सामर्थ्य दिया है, यह मैं कहना चाहता हूँ। उनकी कृपादृष्टि से ही यह चिन्तन करना संभव हुआ है, यह मेरा भाव है।


अंबज्ञोऽस्मि ।

।। हरि: ॐ ।।

Tuesday, 13 May 2014

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-001 (Ayurveda-Swardhuni-001- Algorithm of Pancha Mahabhootas (Post in Sansktit)

।। हरि: ॐ ।।
13-05-2014

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-001


भूतेभ्यो हि परं यस्मान्नास्ति चिन्ता चिकित्सिते।


ॐकाररूपाय प्रणवाय वेदवन्द्याय भगवते।
नमस्ते सद्गुरुतत्त्वाय शुभं कुरु हे धन्वन्तरे॥
अथ आयुर्वेदस्वर्धुनि:। स्वर्धुनिस्तु परमशिवजटाविराजिनी महाविष्णुचरणावगाहिनी सद्गुरुमुखोद्वाहिनी शाश्‍वतपवित्रा दिव्यगंगा। अत्र आयुर्वेदस्य पवित्रज्ञानस्य प्रवाहमाना स्वर्धुनिरेव विराजते, अतश्‍चास्या: लेखमालाया: नामकरणं मया ‘आयुर्वेदस्वर्धुनि:’ इत्येव कृतम्। मम दौहित्र्या: नामापि स्वर्धुनि:, एषा च लेखमाला तस्यै एव समर्पिता।

वेदकालादारभ्य अधुनापर्यन्तं भिन्नभिन्नविचारधारानिष्ठै: भिन्नभिन्नप्रणालिमतावलम्बिभि: स्वमन्तव्यसिद्ध्यै तर्क-मीमांसा-आग्रहादय: कृता:, विभिन्नाश्‍चापि सिद्धान्ता: प्रतिपादिता:। परन्तु सर्वसम्मतं एकं निरपवादं सिद्धान्तं वर्तते- अस्या सर्वस्या: चेतनाचेतनसृष्ट्या: सर्जने उपादानकारणं पंचमहाभूता एव इति।

आयुर्वेदेऽपि सुश्रुताचार्येण पंचमहाभूतानां गरिमा यथार्थरूपेण वर्णिता।
सुश्रुत उवाच-
तन्मयान्येव भूतानि तद्गुणान्येव चादिशेत्।
तैश्‍च तल्लक्षण: कृत्स्न: भूतग्रामो व्यजन्यत॥
तस्योपयोगोऽभिहितश्‍चिकित्सां प्रति सर्वदा।
भूतेभ्यो हि परं यस्मान्नास्ति चिन्ता चिकित्सिते॥
यत: अभिहितं ‘तत्संभवद्रव्यसमूह: भूतादिरुक्त:’।
-सुश्रुतसंहितायां शारीरस्थाने 1- 12, 13, 14

मानवस्य शरीरं पांचभौतिकम्। पंचभूतात्मके देहे आहारोऽपि पांचभौतिक एव। पांचभौतिक-आहारादेव पांचभौतिकस्य शरीरस्य पोषणं भवति। मानवशरीरे पंचमहाभूतानि दोषधातुमलस्वरूपेण विद्यन्ते। दोषधातुमलानां पांचभौतिकत्वं आयुर्वेदशास्त्रकारै: सुस्पष्टं कृतम्। आचार्यै: सर्वेषां पांचभौतिकानां शारीरभावानां दोषधातुमलेषु एव अन्तर्भाव: कृत:॥

सुश्रुतेनापि उक्तं-  अस्मिन् शास्त्रे पंचमहाभूतशरीरिसमवाय: पुरुष इत्युच्यते।
 तैतिरीये उपनिषदि ‘आकाशाद्वायु: वायोस्तेज: तेजस: उदकं उदकात् पृथिवी पृथिव्या ओषधय: ओषधिभ्योऽन्नं अन्नात् पुरुष:’ इत्युक्तम्। त्रिदोषाणामपि पांचभौतिकत्वं आयुर्वेदेन कथितम्।

वाग्भटाचार्येण अष्टांगसंग्रहे त्रिदोषाणां पांचभौतिकत्वविषये लिखितम्-
‘वाय्वाकाशधातुभ्यां वायु:। आग्नेयं पित्तम्। अम्भ:पृथिवीभ्यां श्‍लेष्मा।’ - अष्टांगसंग्रहे सूत्रस्थाने 20-1

त्रयोऽपि दोषा: पंचभूतजाता:, किन्तु भूतयोनित्वात् भूताधिक्यत्वात् ‘व्यपदेशस्तु भूयसा’ न्यायेन तेषां विशिष्टभौतिकत्वं वर्णितम्। अत एव वातदोषे वाय्वाकाशभूतयो:, पित्तदोषे अग्निभूतस्य कफदोषे जलपृथ्वीभूतयो: आधिक्यं प्रतिपादितम्।

‘तत्र वायो: वायु: एव योनि: पित्तस्य अग्नि: कफस्य आप:’ इति भानुमतीटीकायां त्रिदोषाणां भूतयोनिविषये स्पष्टीकृतम्। ‘वातपित्तशेष्माण एव देहसंभवहेतव:’ इति सिद्धान्त: सुश्रुताचार्येण सूत्रस्थाने उक्त:।

गच्छत: स्खलनं  क्वापि भवत्येव प्रमादत: । 
हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति साधव: ॥ 
इत्येव प्रार्थना।

 आदिमातृचण्डिकाया: सद्गुरुश्रीअनिरुद्धस्यश्‍च कृपा मयि सदैव वर्तते। तयो: वरदानात् सर्वेभ्य: शुभं अभिलषामि, स्वस्तिक्षेमं अभिलषामि, श्रेयसायु: अभिलषामि।


अंबज्ञोऽस्मि ।

 

बहुच्छिद्रं परित्यज्य गुणलेशजिघृक्षया
परिगृह्णन्त्वदो विज्ञा ऋजवो दम्भवर्जिता:।
यद्यदुक्तं इह प्रोक्तं प्रमादेन भ्रमेण वा
कृपया हि दयावन्त: सन्त: संशोधयन्तु तत् ॥
 

।। हरि: ॐ ।।


Monday, 12 May 2014

९ मापदंड (मराठी-हिन्दी) (Post in Marathi & Hindi)

।। हरि: ॐ ।।
 12-05-2014

९ मापदंड (मराठी-हिन्दी)


सद्गुरु श्रीअनिरुद्धसिंहांनी तुलसीपत्र- ४९४ मध्ये (दैनिक प्रत्यक्ष- ३०-०८-२००९) सच्च्या श्रद्धावानाला पारखण्याचे ९ मापदंड दिले.
हे नऊ मापदंड आहेत-
1.     आह्निक दररोज दोन वेळा करणे.
2.  आह्निक, रामरक्षा, सद्गुरुगायत्री, सद्गुरुचलीसा, हनुमानचलीसा व दत्तबावनी तोंडपाठ असणे व पुस्तकात न बघता म्हणता येणे. चार महिन्यांतून कमीत कमी एक रामनामवही लिहून पूर्ण करणे व रामनाम बँकेत जमा करणे.
3.    बरोबरच्या व हाताखालील सहकार्‍यांशी उन्मत्तपणे व उद्धटपणे न वागणे.
    सहकार्‍यांची किंवा हाताखालील व्यक्तींची चूक झाल्यास त्यांना जरूर त्याबद्दल ताकीद द्यावी परंतु अपमान करू नये.
4.  उपासनांच्या वेळेस त्या स्थळी असणार्‍या प्रत्येकाने ‘आपण उपासनांच्या वर आहोत किंवा आपल्यास उपासनेची आवश्यकता नाही’ असे वर्तन करू नये.
5.   बोलण्यापेक्षा, बडबडीपेक्षा कोण भक्ती व सेवेच्या कार्यक्रमात किती जीव ओतून सहभागी होतो, हे माझ्या दृष्टीने महत्त्वाचे आहे.
6.   ह्या विश्‍वामध्ये कुणीही मानव ‘आपण एकमेव अद्वितीय आहोत व आपली जागा दुसरा कुणीही घेऊ शकत नाही किंवा आपल्यासारखे कार्य करू शकत नाही’, असे म्हणू शकत नाही
व असे कुणीही मानू नये.
7.  श्रद्धावानांच्या नऊ समान निष्ठा त्याला मान्य असल्याच पाहिजेत व त्याच्या आचरणातही असल्याच पाहिजेत.
8.     चूक झाल्यास चूक सुधारण्याची तयारी पाहिजे.
9.     परपीडा कधीच करता कामा नये.
सद्गुरु श्रीअनिरुद्धसिंहांनी हे मापदंड आम्हाला देताना सांगितले कि आपल्या समोर श्रीरामचरिताचाच आदर्श असला पाहिजे व त्यामुळे ‘पावित्र्य हेच प्रमाण’ ह्याच मूलभूत सिद्धांतानुसार प्रत्येकाचे आचरण असले पाहिजे व वरील नऊ गोष्टी ज्याच्याकडे नाहीत, तो माझ्या जवळचाच काय, परंतु दुरान्वयाने संबंध असणाराही असू शकत नाही, हा माझा ठाम निश्चय आहे.
त्याचबरोबर बापू हेदेखील म्हणाले की तुमच्या हातात मी आज ‘मला काय आवडते व काय आवडत नाही’ ह्याचा निश्चित मापदंड दिलेला आहे व हे मापदंड वापरूनच माझ्याशी निगडित असणारे प्रत्येक कार्य व यंत्रणा राबविले गेले पाहिजेत.
आम्हां श्रद्धावानांसाठी बापुंचे हे मार्गदर्शन खूपच महत्त्वाचे आहे.


अंबज्ञोऽस्मि ।

।। हरि: ॐ ।।



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।। हरि: ॐ ।।



सद्गुरु श्रीअनिरुद्धसिंह ने तुलसीपत्र- ४९४ में (दैनिक प्रत्यक्ष- ३०-०८-२००९) सच्चे श्रद्धावान को परखने के  ९ मापदंड दिये थे।
ये नौ मापदंड हैं-
1.     प्रतिदिन दो बार आह्निक करना।
2.     आह्निक, रामरक्षा, सद्गुरुगायत्री, सद्गुरुचलीसा, हनुमानचलीसा एवं दत्तबावनी कण्ठस्थ रहना और क़िताब में देखकर उन्हें पढ़ने की आवश्यकता न रहना। हर चार महीनों में कम से कम एक रामनाम बही लिखकर पूरी करना और उसे रामनाम बँक में जमा करना।
3.     सहकर्मियों तथा अपने अधिकारक्षेत्र में काम करनेवालों के साथ मग़रूरी से एवं उद्धततापूर्वक पेश न आना।
    सहकर्मियों अथवा अपने अधिकारक्षेत्र में काम करनेवालों से हुई किसी ग़लती के लिए उन्हें ताकीद जरूर दें, लेकिन उन्हें अपमानित न करें।
4.     उपासनाओं के समय उस स्थल पर मौजूद किसी भी व्यक्ति को ‘मैं उपासनाओं से बढ़कर हूँ अथवा मुझे उपासना की जरूरत नहीं है’ इस तरह का बर्ताव नहीं करना चाहिए।
5.     बकवास करने या डिंग हाँकने की अपेक्षा भक्ति-सेवा के कार्यक्रम में कौन कितनी उत्कटता से सम्मीलित होता है, यह मेरी दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
6.     इस विश्‍व में कोई भी मानव अपने विषय में यह नहीं कह सकता कि ‘मैं एकमेव अद्वितीय हूँ और मेरी जगह दूसरा कोई भी ले ही नहीं सकता या मुझ जैसा कार्य कर ही नहीं सकता’
और कोई भी इस भ्रम में न रहे।
7.     श्रद्धावानों की नौ समान निष्ठाओं को उसे मानना ही चाहिए और उसके आचरण में भी वे उतरनी ही चाहिए।
8.     ग़लती करने पर ग़लती सुधारने के लिए तैयार रहना चाहिए।
9.     कभी भी परपीड़ा नहीं करनी चाहिए।

सद्गुरु श्रीअनिरुद्धसिंह ने ये ९ मापदंड देते हुए हमसे यह भी कहा था कि हमारे सामने श्रीरामचरित का ही आदर्श रहना चाहिए और इसीलिए ‘पवित्रता ही प्रमाण है’ इस मूलभूत सिद्धान्त के अनुसार ही हर एक का आचरण रहना चाहिए।
उपरोक्त नौं बातें जिसके पास नहीं है, वह मेरा क़रीबी तो क्या, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से भी मेरा कोई नहीं लगता, यही मेरा दृढ़निश्‍चय है।
साथ ही बापु ने यह भी कहा था कि आज मैंने आपके हाथ में ‘मुझे क्या पसन्द है और क्या पसन्द नहीं है’ इसका मापदण्ड दे दिया है और इस मापदण्ड का उपयोग करके ही मुझसे सम्बन्धित रहनेवाले हर एक कार्य तथा यन्त्रणा को कार्यान्वित किया जाना चाहिए।
हम श्रद्धावानों के लिए बापु के द्वारा किया गया यह मार्गदर्शन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।


अंबज्ञोऽस्मि ।

।। हरि: ॐ ।।


Saturday, 10 May 2014

बधाई हो माँ (Post in Hindi)



हरि: ॐ

10-05-2014

बधाई हो माँ

 
मुबारक़ हो माँ तुम्हें तुम्हारी सालगिरह ।

फूलों की पंखुडियों से सजी रहें तुम्हारी  हर राह ।।

आज के इस शुभ अवसर पर हम तुम्हें बधाई देते हैं ।

माँ हम तुम्हें सदा मुस्कुराता हुआ देखना चाहते हैं ।।

बड़ी माँ चण्डिका सुनो, तुम सबकी झोली भर देती हो ।

आज हमारी बस यही मन्शा शीघ्र ही पूरी कर दो ।।

सदा हमारी माँ का दामन खुशियों से भरा रहें ।

हमें छॉंव देनेवाली माँ पर आचल तुम्हारा सदा रहें ।।

दिल में मुबारक़बात की महकती फुलवारी खिली है ।

हम खुशनसीब हैं, हमें तुम जैसी माँ जो मिली है ।।

आँखों में तुम्हीं ने रोशन किये दो चिराग जल रहे हैं ।

ए माँ तेरी आरती उतारने तेरे चरणों में आये हैं ।।

माँ तेरे बच्चें आज बस यही दुआ करते हैं ।

हमारी उम्र तुम्हें लग जाये, तुम्हारी नज़र उतारते हैं ।।

दुनिया की सारी खुशियॉं माँ हम तुम्हें देना चाहते हैं ।

तेरी ममता के ऋण में माँ हम सदा रहना चाहते हैं ।।

ए माँ हम ने तुम में भगवान की सूरत देखी है ।

हम कैसे कहें कि बस हम ने प्रभु की मूरत देखी है ?

सब कुछ तुमसे ही पाया है, कोई तुम्हें भला क्या दे सकता है ?

हर जनम में तेरी गोद मिलें, बस इतनी ही योगी की ख़्वाहिश है ।।

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अंबज्ञोऽस्मि



।। हरि: ॐ ।।
 



Thursday, 8 May 2014

Ayurveda-Swardhuni: Ayurveda, The Holistic Science with Love and Compassion (Post in English)

।। हरि: ॐ ।।

08-05-2014

Ayurveda, The Holistic Science with Love and Compassion


Ayurveda, the holistic science of life, is considered to be a part of the mighty Vedas. As life science of practical use, it occupied the minds of the Rishis, the followers of Devayaan Path with interest, as well as the curiosity and concern. They saw therein a helping hand to overcome many obstacles arising in their efforts in proceeding the society on the Path of Purushaartha.


Origin of Ayurveda

The system of medicine preserved in the AtharvaVeda, included chants and amulets along with herbs, precious stones and touching the patients. The idea was to cure the patient, physically, mentally and spiritually. It is said that the Vedas, especially the AtharvaVeda is the origin of the divine science of life, Ayurveda.
It is said to have originated from Lord Dhanvantari or Lord Brahma (Creator of the Universe, according to Indian mythology) and descended to the earth through various generations of deities and Rishis. The Rishis (sages-physicians-surgeons- scientists) of the ancient times were the deeply devoted holy people, who saw health as an integral part of spiritual life. Various Symposiums were conducted by them time to time and the knowledge was updated.
It is said that they received their knowledge of Ayurveda through direct cognition during meditation. In other words, the knowledge of the use of various methods of healing, prevention, medication, meditation, longevity and surgery etc came through Divine revelation. These revelations were transcribed from the oral tradition into book form, interspersed with the other aspects of life and spirituality. Ayurvedic text books, focused on the treatment of trees and animals were also available in ancient times.
Ayurveda is an ancient science of life, a traditional and the oldest and most holistic medical system available on the planet today. Before the advent of writing, the ancient wisdom of this healing system was a part of the spiritual tradition of the Vedic Religion. This has been handed down to us by means of ancient venerable scripts as palm leaf books, leather leaves etc.

नार्थार्थं नापि कामार्थमथ भूतदयां प्रति


अंबज्ञोऽस्मि ।

।। हरि: ॐ ।।

Wednesday, 7 May 2014

Aniruddha's Academy of Disaster Management (Post in Marathi & English)

।। हरि: ॐ ।।
07-05-2014

Aniruddha's Academy of Disaster Management


परमपूज्य सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध (डॉ. अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी, एम्. डी. मेडिसीन) म्हणजेच बापू पवित्र समन्वयाच्या मार्गाबद्दल प्रवचानांमधून सांगतात. मला त्यातून बोध झाला, तो पुढीलप्रमाणे- विज्ञान आणि अध्यात्म हे परस्परविरोधी नसून उलट परस्परपूरकच आहेत. विज्ञान आणि भक्ती यांची उचित सांगड घालून परमेश्वरी मार्गाने स्वतःसह सर्वांचाच विकास मानव साधू शकतो.
सेवेलाही भक्तीचे अधिष्ठान असणे गरजेचे आहे, जेणेकरून त्या सेवेचा अहंकार मानवाला येत नाही. उलट भगवंताने मला सेवा करण्याची संधी देऊन माझ्या प्रारब्धाचा भार हलका करण्याचा मार्ग दाखविला, ह्या भावनेने मानव भगवंताचा ऋणी राहतो आणि अधिकाधिक सेवादेखील करत राहतो.
 सद्गुरु श्रीअनिरुद्धांच्या (बापुंच्या) मार्गदर्शनाने ‘अनिरुद्धाज् अ‍ॅकॅडमी ऑफ डिझॅस्टर मॅनेजमेंट’ ह्या संस्थेची स्थापना करण्यात आली. संस्थेच्या नावावरूनच आपल्या लक्षात येईल की ही भक्तीचे अधिष्ठान असणारी संस्था आहे, जिच्याद्वारे श्रद्धावान स्वयंसेवक (DMV) भक्तिमय सेवा (Devotional Service) करतात. आपद्ग्रस्तांना सहाय्य करणे हे परमेश्वरी कार्यच आहे, ह्या श्रद्धेने श्रद्धावान स्वयंसेवक आपत्ती व्यवस्थापनाच्या कार्यात, बचाव कार्यात भाग घेतात आणि भक्तीचा पाया असल्यामुळे आपोआपच त्यात निरपेक्ष भाव असतो.


मानवाची कुवत सीमित आहे, पण भगवंताचे सामर्थ्य असीम आहे आणि जे परमेश्वरी मूल्याधारित कार्य करतात, त्यांना भगवंत त्या कार्यात भरभरून सहाय्य करीतच असतो, ह्या जाणिवेतून आपत्ती निवारण कार्याचे प्रशिक्षण घेण्यापासून ते आपत्ती व्यवस्थापन (Disaster Management) कार्य करण्यापर्यंत प्रत्येक पावलाला श्रद्धावान स्वयंसेवक मनात भगवंताचे स्मरण करत असतात. आपत्ती व्यवस्थापन कार्याच्या सेवेत निरपेक्ष प्रेमाने भाग घेणार्‍या प्रत्येक हाताला विधायक कार्यशक्तीचा पुरवठा करणारे हृदय भक्तीचेच आहे आणि सद्गुरु श्रीअनिरुद्धांच्या प्रेमाने या कार्यात चैतन्य आहे.


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This website provides holistic insights into the functioning, working and other details of A.A.D.M. Some of the important aspects of A.A.D.M. that this website covers are:
Prayer and Preamble of A.A.D.M., Details of the Devotional Services performed by A.A.D.M., various Workshops and Events managed and conducted by A.A.D.M., details of Basic and Other Courses of A.A.D.M., The Third World War (book authored by P. P. Sadguru Shree Aniruddha), Geographic Spread and Presence of A.A.D.M. and its Centres, Reviews, Recommendations and Testimonials about A.A.D.M. by the Seniormost Government Authorities of rank of Chief Fire Officer of Mumbai, Superintendant of Police of Thane Rural District, Additional Director General of Police (P & C) of Maharashtra, Publications by and/or related to A.A.D.M. etc.
One could also find the regular updates on various forthcoming seva opportunities where any D.M.V. (Disaster Management Volunteer) could participate and serve.


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अंबज्ञोऽस्मि

।। हरि: ॐ ।।