Friday, 30 May 2014

आयुर्वेदस्वर्धुनि:-004 -अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम् भाग-03- Algorithm of Pancha Mahabhootas (Post ih Hindi)

।। हरि: ॐ ।।
आयुर्वेदस्वर्धुनि:-004

30-05-2014


अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम्

भाग-03

द्वितीय विभाग- जत्रुकास्थ्यध: मध्यपटल तक का विभाग- वायु विभाग


‘‘आकाशात् वायु:’’ अर्थात आकाश के पश्‍चात्, आकाश के  नीचे, आकाश से ‘वायु’ महाभूत की उत्पत्ति हुई । शरीर में भी शिरोभाग के नीचे जत्रुकास्थि (क्लॅव्हिकल) से श्‍वासपटल (डायफ्रॅम) तक का भाग वायुमहाभूत के अधिकार क्षेत्र में आता है और साथ ही ऊर्ध्वशाखा यानी दोनों हाथ भी वायु से प्रभावित क्षेत्र में ही आते हैं ।

          ‘‘रजोबहुलो वायु:’’- रजोगुण-बहुलता से वायु की उत्पत्ति होती है ।
          ‘‘रजो गत्यात्मकं’’ अर्थात् रजोगुण यह गतिमूलक प्रवृत्त्यात्मक है ।

       शरीर का यह भाग वायु के अधिपत्य में होने का सबसे प्रमुख कारण है- शरीरगत वायु का सबसे बडा स्थान ‘फुफ्फुस’ (लंग्ज्) इसी क्षेत्र में हैं।

         फुफ्फुस शब्द की ‘फुफ्फुसायते अनेन इति फुफ्फुस:’’ इस व्युत्पत्ति में ही फुफ्फुस-वायु संबंध स्पष्ट होता है । वायु के आवगमन से ‘फुस्’ ‘फुस्’ ऐसी ध्वनि जिसमें आती है ऐसा शरीर का एकमात्र भाग है- ‘फुफ्फुसद्वय’ (टू लंग्ज्)!
       
 शरीर की दृष्टि से वायु के दो प्रकार किये जा सकते हैं-
1)     बाह्यवायु (शरीर के बाहर, वातावरण में रहने वाली वायु) और
2)     कर्मवायु (शारीर-वायु)

बाह्यवायु  को शरीर-उपकारक रूप में परिवर्तन कर शारीर वायु का पोषण कर, उसके द्वारा शारीर कार्य क्रियान्वित करनें में फुफ्फुस (लंग्ज़) यह एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है ।

‘‘नाभिस्थ: प्राणपवन: स्पृष्ट्वा हृत्कमलान्तरम् ।

   कण्ठाद्बहिर्विनिर्याति पातुं विष्णुपदामृतम् ॥

   पीत्वा चाम्बरपीयूषं पुनरायाति वेगत: ।

   प्रीणयन्देहमखिलं जीवयञ्जठरानलम् ॥ ’’

- शार्ङ्गधरसंहिता खंड 1/5/47/49


        आचार्य शार्ङ्गधर ने श्‍वसनक्रिया का जो वर्णन किया है, वह अत्यन्त समर्पक है । रूपकात्मक वर्णन वाले इस श्लोक में ‘हृत्कमलान्तरम्’ इस पद में फुफ्फुस का उल्लेख आचार्य ने बडी कुशलता से किया है ।

          ‘कमल’ यह शब्द वैशिष्टयपूर्ण है; इसके यथाव्युत्पत्ति अनेकविध अर्थ निकलते हैं ।
         ‘‘कं जलं, तं अलति भूषयति इति कमलम् ।’’ कमल शब्द की इस व्युत्पत्ति में ‘क’ का अर्थ है- ‘जल’।
इस के अलावा ‘क’ इस शब्द के ‘जल, ताम्र, औषधि, सारस पक्षी, मूत्राशय’ आदि अर्थ भी हैं ।

          आयुर्वेदवेत्ता यह जानते ही होंगे कि ‘‘कं जलं, तेन जलेन फलति इति कफ:।’’ इस तरह ‘कफ’ शब्द बना है; वहीं ‘कपाल’ इस शब्द की व्युत्पत्ति है- ‘‘कं नाम शिर:, तं पालयति  इति कपाल:’’, जिसमें ‘क’ का अर्थ ‘सिर’ है ।

         लेकिन यहाँ पर इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि ‘कमल’ इस शब्द की व्युत्पत्ति में ‘क’ को ‘कं’ ऐसा नपुंसकलिंगी न लेते हुए ‘क:’ ऐसा पुल्लिंगवाचक लेना चाहिए । ‘क: शब्द का संस्कृत शब्दकोश में, ‘ब्रह्मा, विष्णु, कामदेव, अग्नि, यम, सूर्य, मेघ, ध्वनि, राजा’ आदि अनेक अर्थोंसहित ‘वायु’ यह अर्थ भी दिया हुआ है, जो यहाँ पर सार्थक लगता है ।

अब ‘ककुभ:’ इस शब्द को ही लीजिए। आयुर्वेदवेत्ता जानते ही होंगे कि ककुभ यह अर्जुन का पर्यायवाची शब्द है । ककुभ यह अर्जुन वृक्ष का नाम है। अब ककुभ इस शब्द की व्युत्पत्ति देखिए।
ककुभ:’ शब्द की व्युत्पत्ति है-
1)     कस्य वायो: कु स्थानं भाति इति ककुभ:।
वा
2)     कं वातं स्कुभ्नाति विस्तारयति इति ककुभ:।

‘‘मल’’ का साधारण अर्थ हम ‘त्याज्य भाग’ इस तरह लेते हैं । लेकिन वास्तवत: विचार करने पर ‘मल धारणे’ अथवा ‘मृज शौचालंकारयो:’ या ‘‘मृजूष् शुध्दौ’’ इन धातुओं से भी ‘मल’ शब्द की व्युत्पत्ति बतायी गयी है । अत एव इन तीनों धातुओं का समन्वयात्मक विचार करने पर संधारण करना, पकड़ना, स्वच्छ करना, पवित्र करना, सजाना, अलंकृत करना, साङ्ग करना, परिमार्जन करना ऐसे अर्थ सामने आते है ।

      ‘‘क: नाम वायु: तं मल्यते धार्यते अनेन इति कमल: ।’’
      ‘‘क: नाम वायु: तं मल्यते शुध्यते अलंकार्यतेऽपि वा अनेन इति कमल: ॥

         इस तरह ग्रहण किये गये कमल इस शब्द के दोनों अर्थ सयुक्तिक हैं और आचार्य-अभिप्रेत भी हैं । हमारे आचार्यों ने ‘फुस्’ ‘फुस्’ इस ध्वनि का विचार करते हुए निरंतर वायुमूलक आकुंचन-प्रसार करनेवाली रचना को ‘फुफ्फुस’ तो कहा ही है, साथ ही अपनी अतुलनीय विद्वत्ता एवं वर्णनशैली के अनुसार शरीरान्तर्गत क्रियाओं में दुष्ट होनेवाली वायु को शुध्दि एवं पवित्रता प्रदान करनेवाला, धारण करनेवाला ऐसा ‘कमल’ शब्द फुफ्फुस के लिए प्रयुक्त कर उसके कार्य का सुसंपूर्ण वर्णन भी किया है ।

      हमारे शंकालु मन को कदाचित ‘हृत्कमलान्तरम्’ इस पद में स्थित ‘कमल’ इस शब्द का ‘फुफ्फुस’ यह अर्थ लेना चाहिए या नहीं, आचार्यों को ‘कमल’ इस शब्द के द्वारा यही अभिसूचित कराना है या नहीं, क्या इस तरह का अर्थ योग्य है या नहीं, इस तरह के प्रश्‍न सता सकते हैं। परन्तु इन सभी प्रश्‍नों का उत्तर ‘हाँ’ है । हमारे आप्त आचार्यों ने जिस स्तर पर यह लेखन किया है, जिस उच्च शैली में यह प्रस्तुत किया है, वह समझने के लिए हमारी अल्पबुध्दि असमर्थ होने के कारण ही हमारे मन में ऐसी आशंका उत्पन्न होती है और हम सोच में पड जाते हैं
। 
‘हृदय यही कमल है’ इस तरह ‘हृत्कमल’ इस सामासिक शब्द का विच्छेद करना चाहिए ऐसा भी कोई कह सकता है और यह गलत भी नहीं है। क्योंकि सर्वशरीरस्थ ‘वायु’ सर्वप्रथम हृदय में आकर वहाँ से फुफ्फुसों में भेजी जाती है ।
लेकिन ‘हृत् से यानी हृदय से संबंधित, संलग्न, संबध्द ऐसा कमल’ इस तरह ‘हृत्कमल’ इस शब्द का मध्यमपदलोपी समास के रूप में भी अन्वय लगाया जा सकता है । दर असल ‘ आचार्य आढमल्ल’  ने ‘फुफ्फुस: स्वनामख्यात: शोणितफेनप्रभव: हृदयनाडिकालग्न: ’ इस तरह ही फुफ्फुस का वर्णन किया है । इस से हृदय-फुफ्फुसों के बीच का अन्योन्यसंबंध आयुर्वेद के आचार्यों को उस समय से ही सुविज्ञात था और इसीलिए ‘हृत्कमल’ इस सामासिक शब्द का प्रयोग उन्होंने किया है ।
‘अन्तरम्’ इस शब्द की विशेषता पर भी ध्यान देना चाहिए। वायु की सभी क्रियाएँ हृदय एवं फुफ्फुसों की बाह्य रचना को स्पर्श न करते हुए अन्त:भाग में होती हैं । इसीलिए ‘अन्तरम्’ इस शब्द का प्रयोग किया गया है।
हृदय और हृत्संलग्न फुफ्फुसों के अंत:स्थ अवकाश को ‘प्राणपवन’ स्पर्श करके जाते हैं । ‘कमल’ में यानी फुफ्फुसों में वायु की शुध्दि की जाती है, ऐसा स्पष्ट अर्थ इससे निकलता है और इसी दृष्टि से ‘हृत्कमलान्तरम्’ ऐसा पद यहाँ पर प्रयुक्त किया गया है ।
‘कमलम्’ इस शब्द की व्युत्पत्ति (क=कलयति + मल) ‘कलयति अपांकरोति मलं इति कमलम्’ इस प्रकार से भी की जा सकती है। फुफ्फुसों का कार्य भी रक्त में से मलवायु को दूर करना यही है, इसीलिए आचार्यवर ने फुफ्फुस को कमल कहकर संबोधित किया है। नाभिस्थ: प्राणपवन: ... इस श्‍लोक के संदर्भ में जितना किया जाये उतना अध्ययन कम ही प्रतीत होता है और प्राचीन आचार्यों की प्रतिभा के सामने हम नतमस्तक हो जाते हैं।

अंबज्ञोऽस्मि ।

।। हरि: ॐ ।।