।। हरि: ॐ ।।
17-05-2014
आयुर्वेदस्वर्धुनि:-002
अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम्
भाग-01
तस्माद् वा एतस्माद् आत्मन आकाश: संभूत: ।
आकाशाद्वायु: । वायोरग्नि: । अग्नेराप: । अद्भ्य: पृथिवी ॥
- तैत्तिरीय उपनिषद्- ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवाक् 1/2
तैत्तिरीय उपनिषद् यह कृष्ण यजुर्वेद का उपनिषद् है । उसके तीन विभाग हैं- शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली । ऊपर निर्दिष्ट वचन जिस ब्रह्मानन्दवल्ली से लिया गया है, उससे पहले वहाँ पर हम सब को सुविदित रहनेवाली -
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सहवीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥
यह प्रार्थना है और तत्पश्चात् ही ब्रह्मज्ञान प्रतिपादन में विश्व की उत्पत्ति प्रतिपादित करने वाला यह विवेचन है ।
इसमें प्रतिपादित महाभूतोत्पत्तिक्रम को आयुर्वेद के आर्ष ग्रन्थों की भी मान्यता है । इस सूत्र का अर्थ भी अनेक विद्वानों ने अपने अपने दृष्टिकोण से पृथक् पृथक् विवेचित किया है, किन्तु मैं व्याकरणशास्त्र के नियमों के अनुरूप एवं आयुर्वेदीय सिध्दान्त तथा आयुर्वेदीय शरीरशास्त्र को पूरक दृष्टि से इस सूत्र का अध्ययन कर रहा हूँ ।
मानवशरीर के विविध अंग-उपांग, अवयव आदि का स्थान मानवशरीर में विशिष्ट जगह पर ही क्यों है? मानवशरीर की रचना जैसी आज है वैसी ही क्यों है? नेत्र, श्रोत्र, नासा, जिह्वा, हृदय, फुफफुस, यकृत्, प्लीहा, उण्डुक, बस्ति, हस्त, पाद आदि अपने विशिष्ट एवं परस्परोपकारक स्थिति में किस प्रेरणा से कार्यरत हैं? उनकी अन्यत: रचना क्यों नहीं है? उनकी स्थिति के पीछे का कार्यकारण भाव क्या है? इन प्रश्नों के उत्तर भी पंचभूतविचार से प्राप्त होंगे।
तैत्तिरीय उपनिषद के इस वचन का अर्थ जानते हुए उसमें प्रत्येक महाभूत के उत्पत्ति वर्णन में ‘पञ्चमी विभक्ति’ प्रयुक्त हुई है । जैसे कि ‘आकाशात् वायु:’ कहते हुए आकाश इस शब्द की पंचमी विभक्ति ‘आकाशात्’ का प्रयोग हुआ है।
आकाश से वायु, वायु से अग्नि इस तरह पृथ्वी तक क्रमश: उत्पत्ति बतायी गयी है । व्याकरणभास्कर आचार्य ऋषिवर पाणिनि ने अपने अष्टाध्यायी ग्रन्थ में पञ्चमी विभक्ति को स्पष्ट करनेवाला ‘‘अपादाने पञ्चमी ’’ (सूत्र- 2/3/28) ऐसा सूत्र लिखा है । अपादानार्थ क्रिया में पञ्चमी का प्रयोग करें, ऐसा स्पष्ट अर्थ इससे प्रतीत होता है ।
‘‘अपादान’’ इस शब्द की व्युत्पत्ति अनेक अर्थों से बतायी जा सकती है। पंचमी विभक्ति का प्रयोग प्राय: स्थानविश्लेष हेतु यानी एक जगह से दूसरी जगह होने वाली गति को दर्शाने के लिए किया जाता है।
‘‘अप् अधस्तात् आदानं स्थानविश्लेषं इति अपादानम्’’ इस तरह भी ह’ इसे प्रतिपादित कर सकते हैं। इसका अर्थ यह ग्रहण कर सकते हैं कि यहाँ पर पञ्चमी विभक्ति से अधो दिशा में विश्लेषत्व गति अपेक्षित है ।
इसी अर्थ को महाभूतों के उत्पत्तिक्रम में प्रयुक्त करने पर ‘आकाशात् वायु:’ इस पद का अर्थ होगा- आकाश से, आकाश पश्चात् एवं आकाश के अधोस्थान में वायु का निर्माण हुआ। यही अर्थ सा’ सा’ अभिव्यक्त होता है । इसी तरह पृथ्वीपर्यन्त अधोस्थान में महाभूतों का निर्माण होने के पश्चात् ब्रह्माण्ड के विशेष भावित्वकारी निर्माणार्थ उपकार हेतु से महाभूतों का ‘‘परस्परानुप्रवेश’’ होता है; जिस से इस चित्रविचित्र सृष्टि का सृजन होता है । सुश्रुताचार्य ने भी कहा है- ‘‘अन्योऽन्यानुप्रतिष्टानि.......’’ (सुश्रुतसंहिता शारीरस्थान 1/21.)
इस विवेचन से ब्रह्माण्डस्थ पांचभौतिक सृजन स्पष्ट होता है । बीजरूप सृजन ‘‘अपादानत:’’ होता है, वहीं प्रसवरूप सृजन ‘परस्परानुप्रवेश’ से विरुद्ध दिशा में प्रथम और पश्चात् ‘सर्वदिशाव्यापी’ होता है । अपादान शब्द का ‘अधोदिग्सूचक अर्थ’ मुझे यहाँ पर महत्वपूर्ण लगता है । ब्रह्माण्ड के पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति में ‘अपादानात्मक सृजन’ यह ‘शारीर’ दृष्टिकोन से भी उतना ही महत्त्व रखता है । ‘यद् ब्रह्माण्डे तद् पिण्डे’ इस सर्वसामान्य सिध्दान्त से मानवदेह में महाभूतों की उत्पत्ति का यही क्रम होना चाहिए । सूक्ष्मविचार एवं निरीक्षणोत्तर मानवदेह की रचना भी इसी पंचमहाभूतसिध्दान्त पर आधारित है, यह स्पष्ट होता है ।
प्रकृति के दो धर्म हैं- बीजधर्म और प्रसवधर्म ! जैसे ब्रह्माण्ड में बीजधर्मीय प्रकटन से महाभूतों की प्रथम रचना सुघटित हुई, वैसे ही शरीर में भी ‘‘अपादानात्मक’’ दिशा में भूतों की रचना हुई । प्रसवधर्मीय प्रकटन में जिस तरह विरुद्ध दिशा में प्रथम और पश्चात् सर्व दिशाओं में महाभूत प्रसवित हुए, उसी तरह शरीर में ‘भूत’ दोषों का रूप धारण कर विरुद्ध दिशा में प्रथम और पश्चात् सभी दिशाओं में प्रसवित हुए ।
अत: शरीर-रचना की दृष्टि से हम यदि शिर:प्रदेश (सिर) से शुरुआत करें, तो आकाश आदि भूतों का रचनात्मक प्रभाव सिर से शुरू होकर अधोदिशा में दृग्गोचर होता है, वहीं क्रिया की दृष्टि से विरुद्ध दिशा में अधोनाभीय स्थान में वातदोष, हृन्नाभिमध्य में पित्तदोष तथा हृदप्रदेशोर्ध्व में कफदोष अपने कार्य में प्रवृत्त हैं । अत एव ‘पंचभूत-सिध्दान्त’ और ‘त्रिदोष-सिध्दान्त’ यह परस्पर-विरोधी न होकर बीज-प्रसव-धर्म से, ‘रचना-क्रिया’ भेद से परस्पर-उपकारक एवं परस्पर-पूरक ही है । मानवदेह में ‘पंचमहाभूत’ यह बीजरूप अवस्था में रचनाकारक है, किन्तु यही ‘पंचमहाभूत’ प्रसवधर्म को प्राप्त होकर देह में ‘दोषस्वरूप’ धारण करते हुए क्रियाकारक होते है । देहप्रकृति के ‘पंचमहाभूत’ बीज है और ‘त्रिदोष’ यही उसके प्रसवभूत है ।
इनमें से त्रिदोषों का कार्यमूलक विचार आयुर्वेद-ग्रन्थों में विपुलता से है, किन्तु ‘शारीर पंचभूतों का रचनात्मक विचार’ सविस्तार एवं सुस्पष्ट रूप में प्रतिपादित न होने से ‘‘पंचभूतसिध्दान्तमूलक शारीर विचार’’ यह विचारणीय विषय है, जिसपर मैं अपने दृष्टिकोण से मन्तव्य स्पष्ट कर रहा हूँ । सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने ही मुझे इस चिन्तन की प्रेरणा दी है, सामर्थ्य दिया है, यह मैं कहना चाहता हूँ। उनकी कृपादृष्टि से ही यह चिन्तन करना संभव हुआ है, यह मेरा भाव है।