‘अंबज्ञोऽस्मि’ ‘नाथसंविध्’ ‘अंबज्ञोऽस्मि’ का अर्थ है-मैं अंबज्ञ हूँ। अंबज्ञता का अर्थ है-आदिमाता के प्रति श्रद्धावान के मन में होनेवाली और कभी भी न ढल सकनेवाली असीम सप्रेम कृतज्ञता। (संदर्भ–मातृवात्सल्य उपनिषद्) नाथसंविध् अर्थात् निरंजननाथ, सगुणनाथ और सकलनाथ इन तीन नाथों की इच्छा, प्रेम, करुणा, क्षमा और सामर्थ्य सहायता इन पंचविशेषों के द्वारा बनायी गयी संपूर्ण जीवन की रूपरेखा। (संदर्भ–तुलसीपत्र १४२९)
Monday, 27 February 2017
Thursday, 23 February 2017
Saturday, 18 February 2017
Thursday, 16 February 2017
आयुर्वेदस्वर्धुनि:-010 -अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम् भाग-09- Algorithm of Pancha Mahabhootas (Post ih Hindi)
।। हरि: ॐ ।।
आयुर्वेदस्वर्धुनि:-०१०
१६-०२-२०१७
अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम्
भाग-०९
वायु के पवित्रीभवन की आवश्यकता,
उसके लिए पहले अम्बरस्थ ऊर्जा-अवकाश का और पश्चात् वायुशक्ति का पान करना
और
इस प्रक्रिया के द्वारा शरीर में जठरानल-जीवनज्योति को प्रज्ज्वलित रखने का कार्य
इन तीन सोपानों के द्वारा (जिस में ‘नाभि’, ‘प्राणपवन’, ‘हृत्कमल’ ये कल्पक नाम देकर) मानव की श्वसन क्रिया का जो सुबोध एवं संपूर्ण सर्वसमावेशक वर्णन शार्ङ्गधर आचार्य ने जिस प्रज्ञासामर्थ्य से किया है, उसकी प्रशंसा जितनी की जाये उतनी कम है ।
‘प्रीणयन् देहमखिलं’ इस पद से आज जो कोशिकीय (सेल्युलर) स्तर-कार्य-सिध्दान्त स्थापित करते हैं, उसके बारे में ही उन्होंने कहा है । ‘प्रीञ् तर्पणे कान्तौ च’। इस ‘प्रीञ्’ धातु से ‘प्रीणयन्’ रूप बना है।
अखिल देहस्थ प्रत्येक कोशिका (सेल) को, परमाणु को ‘संतृप्त करना’ यह कार्य श्वसनक्रिया के कारण ही होता है । कोशिका प्राणवायु को ग्रहण करके कोशिकान्तर्गत कार्य में निर्मित हुई प्रांगारद्विजारेय (कार्बन डायॉक्साईड) वायु को ‘रस-रक्त’ में मिलाती है, यह सिध्दान्त ही ‘प्रीणयन् देहमखिलं’ इन शब्दों से स्पष्ट होता है ।
‘शरीर-प्राण’ इनके संयोग से ही चैतन्य का अनुवर्तन होता है, जिसे आयु यानी जीवित कहा जाता है । अत एव इस वाक्य से प्राण का- श्वसनक्रिया का महत्त्व बताया गया है ।
अब थोडा सा विषयान्तर करते हुए ‘शरीर-प्राणयो: एव संयोगात् आयु: उच्यते’ इस वाक्य के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं। आयु की व्याख्या करते हुए यहाँ पर इस वाक्य में ‘तनु’, ‘देह’ ‘वपु’ शब्दों का उपयोग न कर, ‘शीर्यते तद् शरीरम्’ यह व्युत्पत्ति रहने वाला ‘शरीर’ यह शब्द ही उपयोग में लाया गया है । इसका कारण यह है कि प्रतिक्षण क्षीयमाण होनेवाला शरीर यह प्राण के द्वारा, पोषणवृत्ति के द्वारा संतर्पित किया जाता है और इसीलिए ‘‘खर्च होकर जमा होना’’ इससे ही आयु-संसार चलता है यही आचार्यों को यहाँ पर बताना है । ‘प्रतिक्षण क्षय और प्रतिक्षण उपचय’ यह सिध्दान्त ही आयुव्याख्या को सिध्द करता है और इसी कारण ‘शरीर-प्राणयो: एव संयोगात् आयु: उच्यते’ ऐसा कहा गया है ।
अब आइए मूल विषय में आगे बढते हैं। रजोबहुल वायु के कारण हृत्स्पंदन, फुफ्फुस-आकुंचन-प्रसरण, मध्यप्राचीरा मांसपेशी (डायफ्रॅम) की क्रिया, ऊर्ध्वशाखा की विभिन्न क्रियाएँ होती रहती हैं । शरीर का प्रत्येक परमाणु सदैव क्रियाशील रहता है्। उर:प्रदेशीय अवयवों की क्रियाओं के समान क्रियाएँ देह में कहीं भी होती हुई दिखायी नहीं देतीं।
फुफ्फुसीय वायुकोशों का विशेष कार्य, महाप्राचीरा पेशी का ऊर्ध्वाध:गमन, हृदय का प्रतिक्षण स्पंदित होना, यह वायु के अंतर्गत होनेवाली क्रियाओं का द्योतक है ।
ऊर्ध्वशाखा (दोनों हाथ) और अध: शाखा (दोनों पैर) इनकी क्रियाओं में जो मूलभूत फर्क यह देह के विभागों पर रहने वाला महाभूत-अधिकार ज्ञात होने पर अधिक स्पष्ट होता है । अध:शाखाओं की क्रियाओं की अपेक्षा उन्नयन, अन्तर्नयन, घूर्णनो आदि ऊर्ध्वशाखा की अधिक क्रियाएँ है । ‘रजोबहुल वायु’ के अधिपत्य में ऊर्ध्वशाखाओं की क्रियाएं होती हैं; वहीं, ‘तमोबहुला पृथ्वी’ के अधिपत्य में अध:शाखाओं की क्रियाएं होती हैं। इतना ही नहीं, बल्कि हाथों की अंगुलियाँ और अंगुठा इनका, पादांगुलियाँ और पाद-अंगुष्ठ, इसी तरह कूर्परसंधि और जानुसंधि, मणिबंध संधि और गुल्फ संधि इनकी तुलना करने पर विविध क्रियाओं में सौकर्यता, विस्तृतता और व्यापकता इनका वायुमूलक महत्त्व हमें सहजता से लक्षित होता है ।
बाह्यवायु से शरीरपोषक वायुनिर्मिति का कार्य यह इसी भाग में सम्पन्न होता है । देह में स्थित सर्वाधिक गतिवान ‘व्यानवायु’ इसी विभाग में रहकर अव्याहत रसरक्तविक्षेपण का कार्य सम्पन्न करती है ।
वायु के अधिकारक्षेत्र के दोषदूष्यों का विचार करने पर, हमें वायु के अधिकार में ही उनका स्थान क्यों है, यह ज्ञात होता है ।
प्राण-उदान-व्यान-समान ये चार वायुप्रकार, साधक पित्त, अवलंबक कफ, रसरक्तादि मूलभूत धातुएं, इन सबके साथ छ: अंग विज्ञान, पंचज्ञानेन्द्रियाँ, इन्द्रियार्थ, जीवात्मा, मन, बुध्दि आदि आध्यात्मिक भाव वायु के अधिकार क्षेत्र में आने से ही इस क्षेत्र की महत्ता अन्योन्य हैं और परस्पर को उपकृत करके उच्चतम कार्य संपादन का सामर्थ्य भी उनमें आता है ।
नाडीपरीक्षा अध्ययन करते समय आपने यह श्लोक तो पढा ही होगा।
‘नाड्यष्टौ पाणिपादकण्ठनासोपान्तेषु या: स्थिता: ।
तासु जीवस्य संचार: प्रयत्नेन निबोधयेत ॥’
इन आठ स्थानों के नाडी के द्वारा जीवसंचार दर्शाने पर भी, ‘हस्तप्रकोष्ठान्त’ नाडी को ही ‘जीवसाक्षिणी’ माना जाता है और नाडी परीक्षा करते समय इस नाडीस्थान को ही प्रधान माना जाता है । ‘पंचमहाभूत-अधिकार’ सिध्दान्त की महत्ता इसी में हैं कि वायु के विशेष महत्त्व के कारण ही अन्य-महाभूत-अधिकार-प्रदेशीय नाडी की अपेक्षा वायुप्रदेश की नाडी ही जीव के अधिक ‘सन्निकट’ है ।
‘स्वयंभूरेष भगवान् वायुरित्यभिशब्दित: ।
स्वातन्त्र्यात् नित्यगत्त्वाच्च सर्वगत्वात् तथैव च ॥
सर्वेषामेव सर्वात्मा सर्वलोकनमस्कृत: ।
स्थित्त्युत्त्पत्तिविनाशेषु भूतानामेष कारणम् ॥
अव्यक्तो द्विगुणश्चैव रजोबहुल एव च ॥
आचार्य सुश्रुत के द्वारा की वायु की ‘स्तुति’ वायु के महत्त्व को तो स्पष्ट करती है। ‘स्थिति-उत्पत्ति-विनाश’ इन सब के लिए वायु ही कारण है । वायुतत्त्व यह अव्यक्त होकर कर्म के द्वारा ही व्यक्त होता है, यह भी स्पष्ट किया है ।
आचार्य चरक ने बड़ी ही खूबी से वायु और जीवित के अटूट नाते को बतलाया है । वह देखने पर, वायु के अधिकार प्रदेश की नाडी ही क्यों देखनी चाहिए, यह सुस्पष्ट होता है ।
वातव्याधिचिकित्सा अध्याय के प्रथम श्लोक में ही चरकाचार्य जी ने -
‘‘वायुरायुर्बलं वायुर्वायुर्धाता शरीरिणाम् ।
वायुर्विश्वमिदं सर्वं प्रभुर्वायुश्च कीर्तित: ॥
इसकी टीका में आचार्य चक्रपाणि लिखते हैं- ‘यद्यपि शरीरेन्द्रियसत्त्वात्मसंयोग आयु:, तथाऽपि तादृशसंयोगे प्रधानत्वात् प्रकृतिस्थो वायुरपि आयुरूच्यते ॥’
आचार्य चरक कहते हैं- ‘आयुश्चेतनानुवृत्ति: ।’ - च. सू. 30/22.
इसकी टीका में आचार्य चक्रपाणि लिखते हैं- ‘चेतनानुवृत्तिरिति चैतन्यसन्तान:, एतच्च गर्भावधिमरणपर्यन्तं बोध्दव्यम् ।’
‘वायु’ ही आयु है, वही बल है, वही शरीरेन्द्रियसत्त्वात्मसंयोगकर्ता है । चैतन्य के अनुवर्तन को आयु कहते हैं, उसे ही ‘जीवित’ ऐसा कहते हैं और इस जीवित का साक्षात्कार नाडी के द्वारा ज्ञात करना होता है । इस चैतन्य की सन्तानवृत्ति के लिए गर्भावस्था से मृत्युपर्यन्त वायु ही कारणीभूत होता है और इसी लिए वायु के अधिकार प्रदेश की नाडी देखना उचित है ।
वातकलाकलीय अध्याय में, ‘कर्ता गर्भाकृतिनाम्’, ‘वायुस्तन्त्रयन्त्रधर:’ इस तरह की सत्रह उक्तियों से गर्भावस्था से (तन्त्र यानी शरीर, यन्त्र यानी तन्त्र की (शरीर की) नियमनकारी शक्ति) मृत्युपर्यन्त वायु के द्वारा ही किस तरह जीवित टीका रहता है यह स्पष्ट होता है और अंतिम उक्ति वायु के कार्य का ‘शिखर’ है । उसके द्वारा वायु का और जीवित का संबंध उत्तम रूप से स्पष्ट होता है ।
‘‘आयुष: अनुवृत्तिप्रत्ययभूत:’’ - च. सू. 12/08.
चैतन्य का, आयु का अनुवर्तन करनेवाला वायुतत्त्व ही है, ऐसा आचार्य चरक ने स्पष्ट कहा है । चरकाचार्य अल्प शब्दों में गूढ़ एवं व्यापक अर्थ कैसे कहते हैं यह हमें देखना है-
उसके लिए, उपनिषद् में आयु का प्रकटन कैसे और किन लक्षणों के द्वारा होता है यह जो बताया गया है, उसे जान लेना आवश्यक है, जिससे कि चरकाचार्य जी के मत का स्पष्टीकरण और उपनिषद् के दिव्य तत्त्वज्ञान का आविष्करण सिध्द होगा ।
मुण्डकोपनिषद के द्वितीय मुण्डक - द्वितीय खंड का प्रथम श्लोक आयु के अस्तित्व के लक्षणों को स्पष्ट करता है-
‘एजत् प्राणत् निमिषत् च यद् एतद् जानथ सत् असत् वरेण्यं परं विज्ञानाद् वरिष्ठं प्रजानाद ॥’
‘एजत्’ ‘प्राणत्’ और ‘निमिषत्’ ये तीन क्रियाएँ चैतन्य के अनुवर्तन को स्पष्ट करने वाली हैं अर्थात् इन तीन मूलभूत क्रियाओं के न होने पर वहाँ पर जीवित-अधिष्ठान नहीं होगा, जीवात्मा का अस्तित्व नहीं होगा, यह स्पष्ट है ।
आज आधुनिक न्यायवैद्यक ने भी कहा है कि हृदय-गति और फुफ्फुस-क्रिया का बंद पड जाना, मस्तिष्क-क्रिया का बंद पड जाना- इन तीनों क्रियाओं का एक साथ अस्तित्व में होना, यही मृत्यु है। यह मृत्यु की व्याख्या उपनिषद् के शब्दों को ही स्पष्ट करती है ।
आज के वैद्यों ने जिन लक्षणों को निश्चित किया है, उसके आगे जाकर एककोशिकीय जीव से लेकर मानवपर्यन्त सभी को समा लेने वाले जीवित-अस्तित्व-प्रदर्शक लक्षणों को हमारे प्राचीन कालीन उपनिषदों ने स्पष्ट रूप में लिख रखा है, यह पढ़कर मन अभिमान से प्रफुल्लित हो जाता है और उन महान उपनिषद्कर्ताओं के आगे हम नतमस्तक हो जाते हैं ।
अगले लेख में हम उपनिषद् और आधुनिक विज्ञान के द्वारा बताये गये मृत्युसूचक लक्षण एकसमान ही हैं, इस संदर्भ में अध्ययन करेंगे।
अंबज्ञोऽस्मि ।
Wednesday, 15 February 2017
Tuesday, 14 February 2017
गीत किस्से कहानियाँ यादें ... शहद की बूँदें ... -04 - हम ना रहे तो याद करोगे समझे
।। हरि: ॐ।।
14-02-2017
गीत किस्से कहानियाँ यादें ... शहद की बूँदें ... - 04
हम ना रहे तो याद करोगे समझे
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Saturday, 11 February 2017
Friday, 3 February 2017
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