‘अंबज्ञोऽस्मि’ ‘नाथसंविध्’ ‘अंबज्ञोऽस्मि’ का अर्थ है-मैं अंबज्ञ हूँ। अंबज्ञता का अर्थ है-आदिमाता के प्रति श्रद्धावान के मन में होनेवाली और कभी भी न ढल सकनेवाली असीम सप्रेम कृतज्ञता। (संदर्भ–मातृवात्सल्य उपनिषद्) नाथसंविध् अर्थात् निरंजननाथ, सगुणनाथ और सकलनाथ इन तीन नाथों की इच्छा, प्रेम, करुणा, क्षमा और सामर्थ्य सहायता इन पंचविशेषों के द्वारा बनायी गयी संपूर्ण जीवन की रूपरेखा। (संदर्भ–तुलसीपत्र १४२९)
Thursday, 26 November 2015
शंखं चक्रं जलौकां दधतमृतघटं चारूदोभिश्चतुर्भि: (Post in Hindi)
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Sunday, 22 November 2015
Friday, 13 November 2015
Thursday, 24 September 2015
श्री-आदिमाता-शुभंकर-स्तवनम्॥ / श्री-आदिमाता-शुभंकरा-स्तवनम् - एक अध्ययन (Sanskrit & Marathi)
Saturday, 22 August 2015
Thursday, 9 July 2015
श्री-देवी-अथर्वशीर्ष - एक अध्ययन (Post In Sanskrit & Marathi)
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Thursday, 2 July 2015
Aniruddha-Gayatri Mantra - Sanskrit, Marathi, Hindi & English
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Wednesday, 20 May 2015
Panchamukha Hanumat Stotram (Post In Hindi)
॥ हरि: ॐ ॥
20-05-2015
नमोऽस्तु ते पञ्चमुख-रामदूत
‘श्रीश्वासम्’ उत्सव में श्रीपंचमुखहनुमानजी
के दर्शन श्रद्धावानों को परिक्रमा के दौरान हो रहे थे। इस परिक्रमा में श्रद्धावान
अन्य स्तोत्र-मन्त्रों के साथ ‘श्री पञ्चमुखहनुमत्स्तोत्रम्’ भी सुन रहे थे।
इस स्तोत्र के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त
करते हैं। श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रन्थराज के द्वितीय खण्ड प्रेमप्रवास में 93वें पन्ने
पर यह स्तोत्र है। इस पञ्चमुखहनुमत्स्तोत्रम् के हर एक श्लोक की अंतिम पंक्ति ‘नमोऽस्तु
ते पञ्चमुखरामदूत’ यह है।
शास्त्रों में बताये गये अनेक मार्गों में
से योगमार्ग, ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग और मर्यादामार्ग ये पाँच सुविदित मार्ग
माने जाते हैं। श्रीपंचमुख-हनुमानजी इन पाँच मार्गों के अधिष्ठाता हैं, यह बात इस स्तोत्र
में कही गयी है। श्रीपंचमुख-हनुमानजी का एक एक मुख उनके एक एक मार्ग के अधिष्ठातृत्व
को बयान करता है। यह क्रम इस तरह है- हयानन यह योगमार्ग की दिशा देता है, नरसिंहमुख
यह ज्ञानमार्ग का शास्ता है, कर्ममार्ग का धुरिण वराहवदन है, गरुडमुख यह भक्तिमार्ग
का अधिष्ठाता है और कपिमुख यह मर्यादामार्ग को प्रबल प्रेरणा देता है।
(संदर्भ: श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रन्थराज द्वितीय
खण्ड प्रेमप्रवास पृष्ठ क्र. 93)
ये पाँचों मार्ग मानव के समग्र जीवन-विकास
के लिए बहुत ही आवश्यक होते हैं। हनुमानजी की कृपा से हम समर्थता से इन पर चल सकें,
इस प्रार्थना के साथ श्रद्धावान इस ‘पञ्चमुखहनुमत्स्तोत्रम्’ का पाठ करते हैं। श्रीराम
की भक्ति करने की इच्छा और प्रेरणा भी हनुमानजी ही देते हैं और श्रीराम की भक्ति करने
से हनुमानजी प्रसन्न होते हैं, यह भी श्रद्धावान जानते हैं। ‘पञ्चमुखहनुमत्स्तोत्रम्’
में अत एव श्रीपंचमुख हनुमानजी को बारंबार ‘रामदूत’ कहकर वन्दन किया गया है। ‘नमोऽस्तु
ते पञ्चमुख-रामदूत।’ हे पञ्चमुख-रामदूत! आपको हमारा प्रणाम।
Tuesday, 19 May 2015
Tuesday, 12 May 2015
आयुर्वेदस्वर्धुनि:-009 -अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम् भाग-08- Algorithm of Pancha Mahabhootas (Post ih Hindi)
।। हरि: ॐ ।।
आयुर्वेदस्वर्धुनि:-00९
१२-०५-२०१५
अथ पंचभूतसिध्दान्त-मूलक-शारीर-विज्ञानम्
भाग-0८
इस श्लोक में एक महत्त्वपूर्ण शब्द है- ‘अम्बरपीयूष’! यह एक विशेष शब्द है, जिसमें ‘अम्बर’ और ‘पीयूष’ ये दो मूल शब्द हैं।
‘‘अम्बं शब्दं राति धत्ते इति अम्बरम् ॥
‘पीङ् पाने’ और ‘‘उष् दाहे’’ इन धातुओं से ‘पीयूष’ शब्द व्युत्पन्न हुआ है । ‘उष्’ धातु का अर्थ है, प्रकाश करना, लेकिन किस तरह? तो अंध:कार को जलाकर प्रकाश करना यह इस में गर्भित अर्थ है। ‘उषा’ यह अंधेरे को, तम को जलाकर आसमंत प्रकाशित करती है । इस ‘उषा’ शब्द के अर्थ को ध्यान में रखते हुए पीयूष इस शब्द का अर्थ जानेंगे, तो वह बेहतर होगा। पीयूष का अर्थ है- इस तरह ‘पान’ करना, इस तरह पीना जिससे कि अग्नि प्रज्वलित होकर शरीरगत विषद्रव्य जलकर स्वास्थ्य प्रकाशित हो।
‘पीयूष’ का अर्थ शब्दकोश में अमृत, सुधा इस तरह दिया गया है । वह अर्थ तो है ही, लेकिन साथ ही यह भावार्थ भी महत्त्वपूर्ण है- ‘जिसके सेवन से शरीर ओषित होता है, चैतन्यानुवृत्त्यर्थ सक्षम होता है, उसे ही ‘पीयूष’ ऐसा कहते हैं । ‘अम्बरस्थ पीयूष’ यानी ‘आकाशस्थ अमृत’। ‘अम्बर-पीयूष’ इस पद का अर्थ यह होता है ।
आचार्य शार्ङ्गधर की वर्णनशैली की विशेषता तो देखिए- ‘प्राणपवन’ पवित्रीभवन-हेत्वर्थ कण्ठ से बाहर जाता है, वह विष्णुपदामृत का पान करने के लिए। क्योंकि उसे पुनीत होने के लिए विष्णुपदामृत की ही आवश्यकता होती है, यह बात ‘‘पातुं विष्णुपदामृतम्’’ इस सूत्र के द्वारा स्पष्ट होती है। इस ‘विष्णुपदामृत’ का पान करने के लिए, उस अमृत-ग्रहण-हेतु उर:स्थान में अवकाश की आवश्यकता होती है, जिसमें यह अमृत संचित होगा । अत: पान-क्रिया का वर्णन करते समय ‘पीत्वा चाम्बरपीयूषं’ ऐसा वर्णन आचार्य ने किया है ।
‘अमृतपान’ करता है ऐसा न कहकर आकाशसहित अमृतपान-पीयूषपान करता है, ऐसा कहा है । संक्षेप में कहना हो तो ‘अम्बर-आकाश’ यह उल्लेख आचार्य ने यूँ ही न करते हुए, इस शब्द के प्रयोग से यह बताया है कि आकाश के बिना पीयूष का पान नहीं किया जा सकता है । उर:स्थान में, फेफडों में यह क्रिया घटित होने के लिए आवश्यक रहने वाले अवकाश का निर्माण पहले किया जाता है, जिसमें ‘पीयूष’ भरा दिया जाता है ।
दूसरा अर्थ यह भी अनुलक्षित होता है कि ‘विष्णुपदामृत’ का पान ही हालाँकि शरीर के लिए आवश्यक है, मगर फिर भी वातावरण में प्राणवायु (ऑक्सिजन) के अलावा अन्य वायुएं भी होती हैं, जो उसकी तीव्रता को कम करती हैं। शरीर को भी केवल प्राणवायु लेना योग्य न होने के कारण बाह्य वातावरणीय आकाशस्थ सभी वायुएं शरीर में ग्रहण की जाती हैं। ‘अम्बरपीयूष’ इस शब्द का यह अर्थ ग्रहण किया जा सकता है ।
उसके आगे के वाक्य में आचार्य अमृतपान करके पुनीत हुई यह वायु उस जठराग्नि को प्रेरित करती है, ऐसा कहते हैं । ‘अम्बरपीयूष’ शब्द के ‘उष्’ धातु के द्वारा भी अप्रत्यक्षत: यही निर्दिष्ट किया गया है । पुन: वेग से आयी ‘पवन’ महाप्राचीरा पटल (डायफ्रॅम) को अधोदिशा में गतिमान करती है, जो कोष्ठस्थ अग्नि का संधूक्षण करता है । लुहार की भाथी/ धौंकनी जिस तरह अग्नि को प्रज्ज्वलित करती है, उसी तरह शरीर का यह भाग एक भाथी/ धौंकनी के समान कार्य करता है ।
प्राणवायु महज़ ‘रस-रक्त-शुध्दि’ नहीं करती, बल्कि उसकी विशिष्ट और बार-बार की आवागमन करने की क्रिया से कोष्ठस्थ अग्नि प्रज्वलित होती है। अवकाश और अंत:कोष्ठीय दबाब, जो वायु के कारण होता है, उसका संतुलन भी श्वसनक्रिया के कारण ही होता है । जठराग्निस्थित समानवायु का प्रेरणास्थान यह महाप्राचीरा पटल ही है ।
मूलत: शरीर की दो वृत्तियाँ होती है- पोषणवृत्ति और उत्सर्जन वृत्ति! प्राणवायु और अपानवायु ये दोनों कार्य करती हैं और इन दोनों के मिलनस्थान पर ‘समानवायु’ कार्यरत रहकर प्राणापान पर तथा उनकी वृत्तियों पर नियंत्रण रखती है । इसीलिए ऊर्ध्व अपान कहलाया जाने वाला उदान और अधो अपान इनकी क्रिया महाप्राचीरा पेशी के बिना होना असंभव है, यह बात हमें शरीर में प्रत्यक्षत: देखने मिलती है ।
प्राण का कार्य भी महाप्राचीरा पटल के द्वारा सुचारु रूप से किया जाता है, समान वायु ही रसरक्त आदि को हृदय की ओर ले जाती है ताकि व्यान वायु उन्हें युगपत् सर्वदेह में विक्षेपित कर सकें । एक दृष्टिकोण से देखा जाये तो व्यान वायु को भी समान वायु ही अप्रत्यक्षत: मदद करती है । वास्तव में, जब प्राण-उदान-व्यान और अपान इनके कार्य शुरू भी नहीं हुए होते हैं, उसी समय ‘समान’ अपना कार्य प्रारंभित करता है ।
गर्भ की कललावस्था से अवयव प्रकटन स्थिति और प्रसवपूर्व तक समान वायु ही कार्य करती है। ‘‘वायु: एनं विभजति’’ इन शब्दों में इस कललावस्था का वर्णन किया गया है, जो समान का कार्य ही दर्शाता है। सभी अवयव प्रकट हो जाने की स्थिति में भी -
गर्भ की श्वासोच्छ्वास और मलमूत्रप्रवृत्ति ये क्रियाएँ न होकर समान के द्वारा ही याकृती रसरक्त-संवहन करते हुए गर्भ को धारण किया जाता है । प्रसवोत्तर ही प्राण आदि चार वायुएं कार्यव्यक्त होती हैं, लेकिन सबसे पहले समान ही क्रियाशील होती है । इसीलिए वायुओं में प्राण के ‘धारण’कार्य में श्रेष्ठ होने पर भी क्रियाशीलत्व की दृष्टि से समान ही महत्त्वपूर्ण है ।
‘नाभि’ शब्द से ‘महाप्राचीरा पटल’ यह अर्थ भी ग्रहण किया जा सकता है, यह मुद्दा पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है । ‘नाभि’ यह शरीर का मूल है, ऐसा कहा गया है। समान वायु भी वायुक्रिया का, पर्याय से शरीर का मूल है, यह यहाँ पर हमें स्पष्ट होता ही है । पूर्व आचार्यों ने भी ‘‘समानो नाभिसंस्थित:’’ इस सूत्र से यही भूमिका स्पष्ट की है । संक्षेप में, नाभिस्थ प्राणपवन को हृदय की ओर ले जाकर श्वसनक्रिया को प्रोत्साहन देनेवाले समान का वर्धन पवित्र वायु के द्वारा किया जाता है, इसमें कोई शंका नहीं है । क्योंकि हमारे शरीर के सभी अवयव ‘कृतज्ञ’ हैं, परस्परोपकारी हैं अर्थात् अंबज्ञ हैं । मूल प्रकृति से जुडे वैश्वानर का यह गुण देह में प्रकर्षता से अभिव्यक्त होता है । अत: प्राणवृत्ति अर्थात् पोषणवृत्ति यह शरीर में जाठराग्नि-दीप्ति के द्वारा प्रकट होती है, यही भावार्थ हमें प्राप्त होता है ।
‘‘अम्बं शब्दं राति धत्ते इति अम्बरम् ॥
‘पीङ् पाने’ और ‘‘उष् दाहे’’ इन धातुओं से ‘पीयूष’ शब्द व्युत्पन्न हुआ है । ‘उष्’ धातु का अर्थ है, प्रकाश करना, लेकिन किस तरह? तो अंध:कार को जलाकर प्रकाश करना यह इस में गर्भित अर्थ है। ‘उषा’ यह अंधेरे को, तम को जलाकर आसमंत प्रकाशित करती है । इस ‘उषा’ शब्द के अर्थ को ध्यान में रखते हुए पीयूष इस शब्द का अर्थ जानेंगे, तो वह बेहतर होगा। पीयूष का अर्थ है- इस तरह ‘पान’ करना, इस तरह पीना जिससे कि अग्नि प्रज्वलित होकर शरीरगत विषद्रव्य जलकर स्वास्थ्य प्रकाशित हो।
‘पीयूष’ का अर्थ शब्दकोश में अमृत, सुधा इस तरह दिया गया है । वह अर्थ तो है ही, लेकिन साथ ही यह भावार्थ भी महत्त्वपूर्ण है- ‘जिसके सेवन से शरीर ओषित होता है, चैतन्यानुवृत्त्यर्थ सक्षम होता है, उसे ही ‘पीयूष’ ऐसा कहते हैं । ‘अम्बरस्थ पीयूष’ यानी ‘आकाशस्थ अमृत’। ‘अम्बर-पीयूष’ इस पद का अर्थ यह होता है ।
आचार्य शार्ङ्गधर की वर्णनशैली की विशेषता तो देखिए- ‘प्राणपवन’ पवित्रीभवन-हेत्वर्थ कण्ठ से बाहर जाता है, वह विष्णुपदामृत का पान करने के लिए। क्योंकि उसे पुनीत होने के लिए विष्णुपदामृत की ही आवश्यकता होती है, यह बात ‘‘पातुं विष्णुपदामृतम्’’ इस सूत्र के द्वारा स्पष्ट होती है। इस ‘विष्णुपदामृत’ का पान करने के लिए, उस अमृत-ग्रहण-हेतु उर:स्थान में अवकाश की आवश्यकता होती है, जिसमें यह अमृत संचित होगा । अत: पान-क्रिया का वर्णन करते समय ‘पीत्वा चाम्बरपीयूषं’ ऐसा वर्णन आचार्य ने किया है ।
‘अमृतपान’ करता है ऐसा न कहकर आकाशसहित अमृतपान-पीयूषपान करता है, ऐसा कहा है । संक्षेप में कहना हो तो ‘अम्बर-आकाश’ यह उल्लेख आचार्य ने यूँ ही न करते हुए, इस शब्द के प्रयोग से यह बताया है कि आकाश के बिना पीयूष का पान नहीं किया जा सकता है । उर:स्थान में, फेफडों में यह क्रिया घटित होने के लिए आवश्यक रहने वाले अवकाश का निर्माण पहले किया जाता है, जिसमें ‘पीयूष’ भरा दिया जाता है ।
दूसरा अर्थ यह भी अनुलक्षित होता है कि ‘विष्णुपदामृत’ का पान ही हालाँकि शरीर के लिए आवश्यक है, मगर फिर भी वातावरण में प्राणवायु (ऑक्सिजन) के अलावा अन्य वायुएं भी होती हैं, जो उसकी तीव्रता को कम करती हैं। शरीर को भी केवल प्राणवायु लेना योग्य न होने के कारण बाह्य वातावरणीय आकाशस्थ सभी वायुएं शरीर में ग्रहण की जाती हैं। ‘अम्बरपीयूष’ इस शब्द का यह अर्थ ग्रहण किया जा सकता है ।
उसके आगे के वाक्य में आचार्य अमृतपान करके पुनीत हुई यह वायु उस जठराग्नि को प्रेरित करती है, ऐसा कहते हैं । ‘अम्बरपीयूष’ शब्द के ‘उष्’ धातु के द्वारा भी अप्रत्यक्षत: यही निर्दिष्ट किया गया है । पुन: वेग से आयी ‘पवन’ महाप्राचीरा पटल (डायफ्रॅम) को अधोदिशा में गतिमान करती है, जो कोष्ठस्थ अग्नि का संधूक्षण करता है । लुहार की भाथी/ धौंकनी जिस तरह अग्नि को प्रज्ज्वलित करती है, उसी तरह शरीर का यह भाग एक भाथी/ धौंकनी के समान कार्य करता है ।
प्राणवायु महज़ ‘रस-रक्त-शुध्दि’ नहीं करती, बल्कि उसकी विशिष्ट और बार-बार की आवागमन करने की क्रिया से कोष्ठस्थ अग्नि प्रज्वलित होती है। अवकाश और अंत:कोष्ठीय दबाब, जो वायु के कारण होता है, उसका संतुलन भी श्वसनक्रिया के कारण ही होता है । जठराग्निस्थित समानवायु का प्रेरणास्थान यह महाप्राचीरा पटल ही है ।
मूलत: शरीर की दो वृत्तियाँ होती है- पोषणवृत्ति और उत्सर्जन वृत्ति! प्राणवायु और अपानवायु ये दोनों कार्य करती हैं और इन दोनों के मिलनस्थान पर ‘समानवायु’ कार्यरत रहकर प्राणापान पर तथा उनकी वृत्तियों पर नियंत्रण रखती है । इसीलिए ऊर्ध्व अपान कहलाया जाने वाला उदान और अधो अपान इनकी क्रिया महाप्राचीरा पेशी के बिना होना असंभव है, यह बात हमें शरीर में प्रत्यक्षत: देखने मिलती है ।
प्राण का कार्य भी महाप्राचीरा पटल के द्वारा सुचारु रूप से किया जाता है, समान वायु ही रसरक्त आदि को हृदय की ओर ले जाती है ताकि व्यान वायु उन्हें युगपत् सर्वदेह में विक्षेपित कर सकें । एक दृष्टिकोण से देखा जाये तो व्यान वायु को भी समान वायु ही अप्रत्यक्षत: मदद करती है । वास्तव में, जब प्राण-उदान-व्यान और अपान इनके कार्य शुरू भी नहीं हुए होते हैं, उसी समय ‘समान’ अपना कार्य प्रारंभित करता है ।
गर्भ की कललावस्था से अवयव प्रकटन स्थिति और प्रसवपूर्व तक समान वायु ही कार्य करती है। ‘‘वायु: एनं विभजति’’ इन शब्दों में इस कललावस्था का वर्णन किया गया है, जो समान का कार्य ही दर्शाता है। सभी अवयव प्रकट हो जाने की स्थिति में भी -
मलाल्पत्त्वादयोगाच्च वायो: पक्वाशयस्य च ।
वातमूत्रपुरीषाणि न गर्भस्थ: करोति हि ॥
जरायुणा मुखे ऽछन्ने कण्ठे च कफवेष्टिते ।
वायोर्मार्गनिरोधाच्च न गर्भस्थ: प्ररोदिति ॥
नि:श्वासोच्छ्वाससड़्क्षोभस्वप्नात् गर्भोऽभिगच्छति ।
मातुर्निश्वासितोच्छ्वाससंक्षोभस्वप्नसंभवान् ॥
गर्भ की श्वासोच्छ्वास और मलमूत्रप्रवृत्ति ये क्रियाएँ न होकर समान के द्वारा ही याकृती रसरक्त-संवहन करते हुए गर्भ को धारण किया जाता है । प्रसवोत्तर ही प्राण आदि चार वायुएं कार्यव्यक्त होती हैं, लेकिन सबसे पहले समान ही क्रियाशील होती है । इसीलिए वायुओं में प्राण के ‘धारण’कार्य में श्रेष्ठ होने पर भी क्रियाशीलत्व की दृष्टि से समान ही महत्त्वपूर्ण है ।
‘नाभि’ शब्द से ‘महाप्राचीरा पटल’ यह अर्थ भी ग्रहण किया जा सकता है, यह मुद्दा पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है । ‘नाभि’ यह शरीर का मूल है, ऐसा कहा गया है। समान वायु भी वायुक्रिया का, पर्याय से शरीर का मूल है, यह यहाँ पर हमें स्पष्ट होता ही है । पूर्व आचार्यों ने भी ‘‘समानो नाभिसंस्थित:’’ इस सूत्र से यही भूमिका स्पष्ट की है । संक्षेप में, नाभिस्थ प्राणपवन को हृदय की ओर ले जाकर श्वसनक्रिया को प्रोत्साहन देनेवाले समान का वर्धन पवित्र वायु के द्वारा किया जाता है, इसमें कोई शंका नहीं है । क्योंकि हमारे शरीर के सभी अवयव ‘कृतज्ञ’ हैं, परस्परोपकारी हैं अर्थात् अंबज्ञ हैं । मूल प्रकृति से जुडे वैश्वानर का यह गुण देह में प्रकर्षता से अभिव्यक्त होता है । अत: प्राणवृत्ति अर्थात् पोषणवृत्ति यह शरीर में जाठराग्नि-दीप्ति के द्वारा प्रकट होती है, यही भावार्थ हमें प्राप्त होता है ।
अंबज्ञोऽस्मि ।
।। हरि: ॐ ।।
Sunday, 15 February 2015
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